चित्त भीतर की ओर जाना प्रारंभ होता है और फिर अपनी आत्मा के संपर्क में आ जाता है

बाद में हमारी बैठक समाप्त हो गई क्योंकि अँधेरा भी बहुत हो गया था। वह स्थान काफी ऊँचाई पर था और आसपास की सभी पहाड़ियों से भी ऊँचा था।उस स्थान का और अन्य पहाड़ियों का अंतर करीब  दुगना था।मैं सोच रहा था--बड़ा सोच समझकर बड़े महाराजश्री ने वह स्थान चुना होगा! कैसे वे अकेले यहाँ पहूँचे होंगे!जब किसी एकांत और निर्जन स्थान पर मनुष्य रहता है तो कुछ दिन उसे बड़ा विचित्र लगता है। चित्त बाहर जाते रहता है। लेकिन बाद में चित्त भीतर की ओर जाना प्रारंभ होता है और फिर अपनी आत्मा के संपर्क में आ जाता है। और आत्मा धीरे-धीरे शरीर को पूर्णतः नियंत्रित कर लेती है। एखादे (किसी) घर आए मेहमान की जैसे आवभगत की जाती है,वैसा ही दृष्टिकोण आत्मा का शरीर के प्रति हो जाता है।आत्मा शरीर को , यह अस्थायी रूप से आया हुआ मेहमान है,ऐसे देखती है। उसे अपना शरीर भी दूसरा लगने लग जाता है।
जैसे अपने एखादे (किसी )प्रिय वस्त्र को हम देखते हैं, कुछ वैसा ही भाव आ जाता है। जैसे एखादा(कोई)शर्ट (कमीज) है जो इतना मजबूत है कि जिसका आप चाहे जैसा भी इस्तेमाल करें,फिर भी वह  फटता नहीं है और सालों तक  चलता रहता है। वह कितना भी गंदा हो जाए,कितना भी मैला हो जाए तो भी एक बार धोने पर स्वच्छ हो जाता है। उस पर प्रेस(इस्त्री) भी आसानी से हो जाती है या उसे प्रेस न भी की जाए तो भी वह नया जैसा ही, चमकीला लगता है। तो ऐसे शर्ट के प्रति अपना जो भाव रहता है,वही भाव आत्मा का शरीर के प्रति हो जाता है।.....

हि.स.यो-४                  
पु-३३८

Comments

Popular posts from this blog

Subtle Body (Sukshma Sharir) of Sadguru Shree Shivkrupanand Swami

सहस्त्रार पर कुण्डलिनी