आत्म-अनुभूति जाती,धर्म,देश,रंग,लिंग इन सब भेदों से परे है।

हो सकता है,कुछ लोग अपने पुराने संस्कारों से,अपने बाहरी धर्म से , अपनी मान्यताओं से ही चिपके रहें और यह नई बात ग्रहण न भी करें क्योंकि आत्म-अनुभूति का समाज में अनुभव नहीं है। और प्रत्येक मनुष्य किसी -न-किसी पंथ से ,किसी-न-किसी धर्म से जुड़ा ही हुआ है। उसका अपना एक विश्वास है,उसका अपना एक धर्म है।प्रत्येक की अपना एक मान्यता है। सब कुछ- न -कुछ पकड़े हुए ही हैं। कई कार्य वह धर्म के नाम पर कर रहा है। कई जगह स्वार्थ के लिए धर्म का उपयोग कर रहा है। जो उसे खाना है,उसी का प्रसाद चढ़ा रहा है और भगवान के नाम पर खा रहा है। समाज में धर्मों की ,गुरुओं की भरमार है। ऐसी भीड़ में जो सुनने को खाली ही नहीं है, उस समाज में जाना,जो आस्तिक हो,भले ही उसकी आस्था अनुभूति पर आधारित न हो,ऐसे समाज में जाना,और आत्मसाक्षात्कार की बात कराना विचित्र तो होगा।हो सकता है,लोग इस नए प्रयोग के लिए  तैयार ही न हों।वातावरण तो निराशाजनक है। लेकिन ऐसे ही समाज में गुरु आत्मसाक्षात्कार की अनुभूति कराना चाहते हैं यानी समाज में जो चल रहा है,यह अनुभव उससे भी ऊपर का होगा,तभी तो इसे लेने के लिए लोग तैयार होंगे।और यह आत्म-अनुभूति जाती,धर्म,देश,रंग,लिंग इन सब भेदों से परे है। यानी इसे पाने के लिए कोई बंधन नहीं है। आपका बाहरी धर्म कुछ भी हो,आपका भीतरी धर्म एक ही है,वह है-स्वयं का, अपनी आत्मा का धर्म आत्म-धर्म। यह सब गुरुदेव जानते हैं,और इसलिए
मुझे समाज में जाने के लिए कह रहे हैं। देखते हैं,गुरुदेव जब तक हिमालय में नहीं आने देते,तब तक ही समाज में रहेंगे और गुरुकार्य करने का प्रयास करेंगे।.....

हि.स.यो-४                
पु-३४९

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