आत्मज्ञान का फल
आत्मज्ञान का फल मनुष्य ने चखा नहीं है | वह भूखा है | मिट्टी ही खा रहा है और उसे ही फल समझ रहा है | इतना अज्ञानी है | मनुष्य अपनी अज्ञानता के कारण पुस्तक से प्राप्त जानकारी को ही ज्ञान समझ रहा है क्योंकि ज्ञान की अनुभूति उसने कभी की ही नहीं है | वह नहीं जानता है कि ज्ञान की एक अनुभूति है जो निर्जीव पुस्तकों से प्राप्त नहीं हो सकती है | पुस्तक का ज्ञान केवल जानकारी मात्र है | जो हो चुका है, उसकी जानकारी | जानकारी कभी अनुभूति नहीं करा सकती | अनुभूति एक सजीव ज्ञान है | जब तुम सजीव हो ,तो एक निर्जीव पुस्तक तुमको सजीव ज्ञान कैसे दे सकती है | जैसे मान लें , तुमने गाय के ऊपर लिखी हुई एक पुस्तक पढ़ी ,तो उस पुस्तक में गाय की जानकारी होगी | गाय के चार पैर , एक पूंछ ,दो सींग होते है | गाय दूध देती है | दूध स्वास्थ्यवर्धक है | दूध सफ़ेद रंग का है आदि | ये सब गाय की जानकारी मात्र है | पर पुस्तक गाय क दूध की अनुभूति नहीं करा सकती | दूध पीना है तो जीवंत गाय का होना आवश्यक है ,तो ही उस दूध को अनुभव कर सकते हो | ठीक वैसे ही पुस्तकों में परमात्मा की जानकारी मात्र है , परमात्मा की अनुभूति नहीं | अनुभूति करने के लिए एक जीवन्त माध्यम की आवश्यकता होती है ,वही माध्यम जीवन्त सद्गुरु होते हैं और इनके माध्यम से आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है , वास्तव में वही मात्र ज्ञान है और इस ज्ञान को पाने के बाद बाहरी जानकारी पड़ने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती क्योंकि पुस्तकों में लिखी हुई सारी जानकारी मनुष्य को अपने भीतर के आत्मज्ञान से ही प्राप्त होनी शुरू हो जाती है |
स्वविचारों से संस्कारित गद्य
हि.स.यो.१/३४६
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