समाधान ही मोक्ष है
तुम्हें भी प्राप्त होगा और उन माँ-बाप को भी। यह समाधान ही मोक्ष है।
गुरू की शक्तियों का आह्वान आसान कार्य नहीं है। इसके लिए शरीर के ही नहीं, चित्त के भी पवित्र होने की आवश्यकता है। ऐसे पवित्र चित्त से ही गुरूशक्तियों का आह्वान करना होगा। गुरूशक्तियों से संपर्क के लिए सुबह 4 बजे का समय उचित होता है। शरीर को जो आवश्यक उर्जा चाहिए, वह उर्जा उन्हीं कुछ पलों में मनुष्य को प्राप्त होती है। बाकी समय तो वह प्राप्त हुई ऊर्जा को गवाँता है। पूर्णिमा का समय सर्वश्रेष्ठ समय होता है। उस समय ग्रहण करनेवाले की क्षमता हजार गुना बढ जाती है। इस कार्य में बड़ी शांति और समर्पण भाव की आवश्यकता है कि कार्य तो संपन्न हो, पर कार्य की वासना न हो, इच्छा न हो क्योंकि वासना, इच्छा शरीर से संबंधित है और यह कार्य तो दो आत्माओं का मिलन है। और मिलन भी एक महान कार्य के लिए है, एक ऐसा महान, दिव्य कार्य जो शरीर से हो ही नहीं सकता, यह तो आत्मा को परमात्मा ने दिया हुआ प्रसाद है। इस कार्य में दोनों का सहयोग, दोनों की सामुहिकता, दोनों की आत्मीयता अत्यंत आवश्यक है। यह कार्य सामान्य, शरीर की क्रिया नहीं है, एक महान स्रूष्टि के निर्माण की प्रक्रिया है। अगर हमें हमारे बाद भी अच्छे व्रूक्ष हमारी अगली पीढ़ी के लिए चाहिए तो उसके लिए अच्छे बीजों का निर्माण करना आवश्यक है। यह क्रिया घटित हो जाने के बाद आपको आत्मिक समाधान प्राप्त होगा। यह समाधान शरीर का समाधान नहीं होगा, एक आत्मिक समाधान होगा कि मैने सर्वस्व प्राप्त कर लिया है, अब पाने के लिए कुछ भी बाकी नहीं रह गया है। और यही आत्मिक समाधान दोनों की आध्यात्मिक प्रगति करेगा और मेरे महान गुरूओं को एक अच्छा वातावरण प्रदान करेगा कि वे धरती पर अवतरित हो सकें और अपना बाकी बचा हुआ गुरुकार्य कर सके।
यह गुरूशक्तियों के आह्वान का कार्य कोई सामान्य कार्य नहीं है, काम-क्रीडा नहीं है क्योंकि वह तो शरीर से संबंधित होगी। यह गुरूशक्तियों के आह्वान का वह महत्वपूर्ण चरमबिंदु है जहाँ जाकर शरीर के सारे एहसास समाप्त हो जाते हैं, शरीर के सारे तनाव समाप्त हो जाते हैं। एक महान शून्य की स्थिति प्राप्त हो जाती है। इसमें कोई प्रयत्न नहीं होता, होता है तो एक पवित्र आत्मिक संबंध जो स्त्री और पुरुष अपनी आत्मिक स्थिति के संपूर्ण समर्पण से प्राप्त करते हैं। वह एक क्षण ही अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि वह क्षण निर्णय करता है कि आप कितनी ऊंचाई पर जाकर ऊर्जा प्राप्त कर रहे हो। इस लोक से गुरूलोक तक का अंतर केवल संपूर्ण समर्पण भाव से ही पार हो सकता है। क्योंकि मनुष्य जितना हो सके, उतने प्रयत्न करे, तो भी प्रयत्न तो शरीर से होंगे और शरीर कितना भी पवित्र हो, कितना भी शुद्ध हो, उसकी अपनी एक सीमा होती है। उस सीमा के ऊपर वह नहीं पहुँच सकता है। और दुसरी ओर संपूर्ण आत्मिक समर्पण का भाव है जो भाव शरीर के भाव को ही समाप्त कर देता है। शरीर का भाव ही समाप्त हो गया तो फिर शरीर की वासना, शरीर की इच्छा, शरीर के प्रयत्न कोई भी बाकी नहीं रह जाते हैं। बस रह जाता है समर्पण, संपूर्ण समर्पण का भाव ! और इसी भाव के कारण गुरूशक्तियाँ गुरूलोक से अवतरित होती हैं। यह उनकी क्रूपा है, करूणा है जिसे पाने के लिए प्रयत्न असफल सिद्ध होंगे। वह तो क्रूपा की बरसात है, वह तो उनकी करूणा से ही होगी। जहाँ पर मनुष्य के प्रयत्न समाप्त होते हैं, वहाँ पर ही यह गुरूक्रूपा बरसती है। वास्तव में, यह कोई शारीरिक क्रिया नहीं है, यह दोनों आत्माओ की आत्मिक, सर्वोच्च ध्यान की समाधि अवस्था है जिसमें संपूर्ण समर्पण भाव से दोनों आत्माए सामूहिकता में ध्यान की एक उच्च अवस्था प्राप्त करते हैं जिस अवस्था में पहुँचकर पाने को कुछ रह ही नहीं जाता, एक संपूर्ण समाधान की स्थिति प्राप्त हो जाती है।
हिमालय का समर्पणयोग भाग-2 - 269...to..325 से संकलित)
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