पवित्र,शुध्द,निर्मल आत्माओं का समाज होगा,एक पवित्र सामूहिक शक्त्ति बनेगा।

वह उसने स्वयं ही इसीलिए छोड़ दिया क्योंकि उसके आसपास अँधेरा था और उस अँधेरे के कारण उसे साँप भी रस्सी लग रहा था लेकिन जैसे ही अँधेरा दूर हो गया, प्रकाश हो गया,वैसे ही उसने स्वयं ने ही उस साँप को छोड़ दिया। ऐसी ही स्थिति सामान्य मनुष्य की है। कई गलत बातेंभी मनुष्य ने,अच्छी हैं,यह समझकर पकड़ रखी हैं।क्योंकि अज्ञानता है और अज्ञानता के अँधेरे के कारण गलत धारणाएँ,गलत विश्वास, गलत रीतियाँ,गलत मान्यताएँ,भले ही वे जाति के नाम पर हों,धर्म के नाम पर हों,मनुष्य ने पकड़कर रखी हैं। लेकिन जैसे ही ईश्वरीय अनुभूति होती है और आत्मा प्रकाशित होती है तो मनुष्य को कहना ही नहीं पड़ता है--यह गलत है,छोड़ दे;वह स्वयं ही छूट जाता है।इस ध्यान पध्दति का लक्ष्य एक ऐसे समाज का निर्माण करना है जो आत्मप्रकाशित हो। और जब सभी लोगों का बुरा छूट जाएगा तो स्वाभाविक ही है,अच्छे-अच्छे लोग यहाँ एक समाज का निर्माण करेंगे जो अलग-अलग धर्मों की अच्छाईयाँ लेकर,अलग-अलग देशों की अच्छाईयाँ लेकर, अलग-अलग जातियों की अच्छाईयाँ लेकर निर्मित होगा,जो केवल और केवल अच्छाईयों की समाज होगा।सभी पवित्र,शुध्द,निर्मल आत्माओं का समाज होगा,एक पवित्र सामूहिक शक्त्ति बनेगा।ऐसे समाज का निर्माण का सपना ऋषि-मुनियों ने देख है।उनका लक्ष्य बहुत बड़ा है और समय भी बहुत लगने वाला है।उनके जीवन काल में भी वह शायद पूरा न हो लेकिन वे लोग वह पेड़ लगाकर जा रहे हैं जिसका फल आने वाली पीढ़ियों को प्राप्त होने वाला है।...

हि.स.यो-४             
पु-४४३

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