गुरुओं के इस महान ,पवित्र कार्य का उद्देश
गुरुओं के इस महान ,पवित्र कार्य का उद्देश मनुष्य के भीतर विद्यमान ईश्वर के अंश को प्रकाशित करना है।क्योंकि उसे प्रकाशित करना ही प्रत्येक धर्म का उद्देश् था लेकिन समय के साथ-साथ वह उद्देश् कहीं छूट गया है। जिस प्रकार से अग्नि का गुणधर्म होता है जलन और पानी का गुणधर्म होता है बहना,ठीक इसी प्रकार से मनुष्य का गुणधर्म है प्रेम करना। लेकिन वह प्रेम करना ही भूल गया है। इसका एक ही हल है,सारे धर्मों के मुख्य उद्देश् को ही पकड़ा जाए। यह सोचकर ही सालों से गुरु,मुनि, तपस्वी इन,हिमालय की गुफाओं में ध्यान साधना कर रहे थे। और सालों की तपस्या के बाद जब उन्हें तुम्हारे रूप में उचित माध्यम मिला,तभी उन्होंने आत्मज्ञान को प्रत्येक मनुष्य तक पहुँचाने का संकल्प करके इसे तुम्हे दिया। इसलिए,इस ज्ञान को पाने के लिए कौन योग्य है और कौन अयोग्य है,यह भी सोचना तुम्हारा कार्य नहीं है। जो योग्य है,वह ग्रहण करेगा। जो योग्य नहीं है,वह ग्रहण नहीं करेगा। आत्मज्ञान का हो या किसी ज्ञान का हो,वह किसे किसकी तरफ से मिलने वाला है,यह निश्चित ही होता है और फिर वैसी ही परिस्थितियाँ निर्मित होती हैं और आत्मा अंत में उस स्थान पर पहुँच ही जाती है जहाँ पर उसे पहुँचना होता है। सशक्त आत्मा किसी भी परीस्थितियों में अपना रास्ता निकाल ही लेती है। किसी को रास्ता जल्दी मिलता है तो किसी को थोड़ा समय लगता है।...
हि.स.यो-४
पु-४५१
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