परमात्मा की उनुभूति
यह,परमात्मा की उनुभूति मनुष्य को मनुष्य सेजोड़नेवाली अनुभूति है। सभी मनुष्यों में ईश्वर का ही अंश हैऔर ईश्वर वैश्विक चेतना है। उसे आप किसी भी नाम से पुकारो,कोई फर्क नहीं पड़ता है। यह ध्यान पध्दति समाज का कोई विभाजन नहीं करती;न देश का,न धर्म का,न जाति का,न भाषा का। यह सदगीरुओं ने सभी के लिए बनाई है।
इस ईश्वरीअनुभूति को अपने जीवन में बस जोड़ना है।और इसे जोड़ने के बाद बस जो योग्य होगा, वही जीवन में रह जाएगा और जो योग्य नहीं होगा,वह स्वयं ही छूट जाएगा।क्या अच्छा हैऔर क्या बुरा है,क्या पुण्य है और क्या पाप है इसकी परिभाषा प्रत्येक मनुष्य और प्रत्येक देश के अनुसार अलग-अलग होती है।इसलिए इन सबको परिभाषित ही नहीं किया गया है और न ही कुछ भी छोड़ने के लिए कहा गया है। अपने जीवन में इस ईश्वरीय अनुभूति को केवल जोड़ने के लिए कहा है।और इस ध्यान पध्दति का अभ्यास करते-करतेआत्मा स्वयं सशक्त हो जाती है और आत्मा का नियंत्रण संपूर्ण शरीर पर हो जाता है।और फिर शरीर जो कुछ सही करते रहता है,वह रह जाता है और जो व्यसन करते करते रहता है,वे छूट जाते हैं। व्यसन छोड़ने नहीं पड़ते हैं,स्वयं छूट जाते हैं क्योंकि आत्मा का प्रकाश समूचे शरीर में हो जाता है। कई कुरीतियाँ और कई कुसंस्कार जो हमने,अच्छे हैं,ऐसा समझकर पाल रखे होते हैं,वे,जब यह ज्ञान हो जाता है कि वे अच्छे नहीं थे, स्वयं ही छूट जाते हैं।...
हि.स.यो-४
पु-४४१
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