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Showing posts from November, 2017

सुक्ष्म से जुडो

कई बार साधको को माध्यम कहते रहता है। की मेरे दशेन भी तुम्हे तुम्हारे पुवे जन्म के पुण्यकमे से मील रहे है। जीस दिन पुण्यकमे समाप्त होगे तो दशेन भी नही हो सकेगे। अरे बाबा साकार तो नीराकार का दरवाजा है। साकार से नीराकार तक पहुचो  स्थुल से सुक्ष्म तक पहुचे तो बुदधु साधक वह भी पुछते कैसे तो आज अगर आप का भी यह प्रश्न है। तो समझो माध्यम के फोटो से आत्म साक्षात्कार हो रहा है। यह आज गुरूशक्तीयो की करूणा है।तो जीस माध्यम के फोटो से आत्माका साक्षात्कार होता है। उसके सामने भी आप अपने आप को पहचान नही पाते हो आप कौन है? आप कहॉ से आये है? आपको कहॉ जाना है? आप को केवल दशेन से ही यह प्रश्न आना चाहीये।आते है क्या नही क्यो की उस क्षण भी आप का चित्त नाशवान शरीर की समस्याओ के उपर ही रहता है। वास्तव मे माध्यम का दशेन कीतना मीला उसका कोई महत्व नही है।” आपने अपने आप तक पहुचने के लिये अपने आप को जानने के लीये  कीतना उपयोग कीया वह महत्वपुणे है” माध्यम का दशेन का सदउपयोग आप करे और अपने आप को पहचाने बस परमात्मा से यही प्राथेना है।आप सभी को खुब खुब आशिवाद                      आपका अपना               

ध्यान

        तुम  . .तुम  ध्यान  के  अंदर  नियमीत  ध्यान  करो । आधा  घंटा  ध्यान  करना  ये  सबके  इसकी  दवा  है । ध्यान  लगे  या  न  लगे  ये  आपका  क्षेत्र  नही  है । देखो , अपेक्षा  से  साधना  अशुद्ध  होती  है । कोई  भी  अपेक्षा  से  साधना  करोगे  उसकी  शुद्धि  चली  जएगी । औऱ  फिर  सक्सेस [सफलता ] भी  चला  जाएगा । परमपूज्य स्वामीजी समाधान [म.चैतन्य]                न .दी .2016

गर्भाधान

प्राचीन समय में गर्भाधान का भी समय देखा जाता था | गर्भाधान के समय अच्छा वातावरण होना चाहिए , अच्छे विचार होने चाहिए, और अच्छी मानसिक स्तिथि होनी चाहिए | गर्भाधान भी तीन स्तरों पर होता है | एवं उसी के आधार पर तीन प्रकार की आत्माएँ जन्म लेती हैं | अगर शारीरिक सम्बन्ध वासना के स्तर पर हुआ है , तो आसुरी स्तर की आत्मा जन्म लेगी | अगर शारीरिक सम्बन्ध मधुर और आत्मिक स्तर पर हुआ है ,तो मनुष्य के स्तर की आत्मा जन्म लेगी | और इस आत्मा को अगर आसुरी आत्माओं की सामूहिकता मिलेगी ,तो आसुरी आत्मा बनेगी  और अगर पुण्य आत्माओं की सामूहिकता मिली, तो पुण्यात्मा बनेगी | और तीसरा स्तर होता है की शारीरिक सम्बन्ध ध्यान की उच्च आध्यात्मिक स्तिथि में हो जाए ,तो ऐसी उच्च अवस्था में हुआ सम्बन्ध दैवी आत्माओं को जन्म देगा | सबकुछ माता पिता की उस समय की  स्तिथि पर ही निर्भर करता है | इसी कारण एक ही माता पिता की संतानें ,घर के समान संस्कार होने पर भी दैवी आत्मा, मानवी आत्मा , आसुरी आत्मा होती है | गर्भाधान के           आत्मा के तीन स्तर              तीन स्तर      ⬇                      ⬇         शारीरिक      

आत्मशक्ति जागृत होनेपर

    आत्मशक्ति  जागृत  होनेपर  हमे , क्या  उचित  है  और  क्या  अनुचित  है , इसका  ज्ञान  हो  जाता  है । और  वह  ज्ञान  होने  पर  हमसे  कोई  भी  गलत  कार्य  हो  ही  नही  सकता  है  और  फिर  मनुष्य  का  जीवन  एक  सफल  जीवन  सिद्ध  होता  है । औऱ  सदगुरु  के  पास  दृढ़  इच्छाशक्ति  से  ही  पहुँचा  जा  सकता  है । ही .का.स.योग.                   2/424

समेपण संस्कार 2

एक पवीत्र और शुद्ध आत्मा के द्रारा एक पवीत्र और शुद्ध आत्मा पर कीया गया यह एक संस्कार है।इस प्रक्रीया को घटीत होने के लीये और इस संस्कार को ग्रहण करने के लीये प्रथम आत्मा होना पडता है। आत्मा ही इस संसार मे नाशवान नही है। बाकी सब नाशवान है।जब आप इस पवीत्र संस्कार को ग्रहण करते है। और अपने भीतर वीकसीत करते है। तो आप मानव से महामानव हो जाते है।और फीर आपका शरीर तो माध्यम बन जाता है। और फीर मेरे एक सामान्य मनुष्य के माध्यम से भी 22 वषे मे ही विश्वस्तर का काये हो जाता है।और यह हो सकता है। इसका उदाहरण मुझे हिमालय से समाज मे भेजकर “हिमालय के गुरूओ” ने दिया है। यह केवल “समेपण संस्कार” से ही संभव हो सका है। यह संस्कार विश्व का कोई भी मनुष्य ग्रहण कर सकता है।जो भी ग्रहण करना चाहे “परमात्मा”के दरवाजे सभी के लीये खुले है। समान भाव और निशुल्क यह “परमात्मा” की विषेषताऐ है।                   बाबा स्वामी राजस्थान समेपण आश्रम अरडका अजमेर ( राजस्थान )                भारत

अंतिम जन्म

" मेरे अंतिम जन्म में मैंने नया देहरूपी चोला पहना था। वे वह चोला देखकर भ्रमित होते इसलिए मैंने ,वे जान पाएँ ऐसे ही रूप में दर्शन दिया है।चोला तो प्रत्येक जन्म में जन्म की परीस्थिति के अनुसार ही धारण किया जाता है। हम बाहरी चोलों को महत्व नहीं देते हैं। भीतर की ,आत्मा की भावना तो वही है,वह भावना ही अपने शिष्य को प्रेरणा देती है। गुरु के शरीर की रचना दूसरे के लिए ही हुई होती है,इसलिए वह अपने शिष्यों के प्रति पूर्ण समर्पित होता है। गुरु प्रत्येक क्षण , अपने शिष्यों की प्रगति कैसे हो,कैसे उन्हें समझाया जाए, कैसे मार्गदर्शन किया जाए,क्या कहने पर वे समझेंगे,उनकी दृष्टि से क्या करना उचित होगा,ऐसे सभी तरीकों से शिष्य के लिए सोचते रहते हैं।क्योंकि गुरु को अपने बारे में तो कुछ करना ही नहीं होता।वे शिष्य का मार्गदर्शन करने के सही स्थान और सही समय का ही इंतजार करते रहते हैं।इन सभी से मेरे पुराने संबंध हैं। इसलिए मुझे तो इनका मार्गदर्शन करना ही था। मेरे और बहुत से शिष्यों का यहाँ आना बाकी है। उनके यहाँ पहुँचने तक मुझे उनका यहीं इंतजार करना होगा।"... हि.स.यो-४                पु-३९५

आत्मा

          जो शरीर आत्मा के अस्तित्व का स्वीकार ही नही करता तो आत्मा की अनुभूति उस शरीर को कभी हो ही नही सकती है । आत्मा के अस्तित्व को मानने की प्रक्रिया ही ध्यान है । परम पूज्य स्वामीजी         ही.स.योग.5/337

आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करना और आत्मसाक्षात्कार से मोक्ष प्राप्ति करना किस बात पर निर्भर होता है ?

आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करना और आत्मसाक्षात्कार से मोक्ष प्राप्ति करना किस बात पर निर्भर होता है ? मैंने उन्हें समझाते हुआ कहा , आत्मसाक्षात्कार पाना दो बातों पर निर्भर होता है - एक पूर्वजन्म के पुण्यकर्म हों तो आत्मसाक्षात्कार पाप्त हो सकता है। लेकिन वे पुण्यकर्म आत्मा की शांति के लिए ही किए गए हों ,अन्यथा आत्मसाक्षात्कार पाकर भी उसे साधक खो देता है क्योंकि वह उसका महत्व ही नहीं जानता। और दूसरा , आत्मा की शुद्ध इच्छा से अगर आप आत्मसाक्षात्कार को पाते हैं तो आप , आपको क्या मिला है इसका महत्व जानते हैं। और फिर आपकी आत्मा उस आत्मसाक्षात्कार को आत्मसात कर लेती है। यानी इस मार्ग में पुण्यकर्मों से भी अधिक महत्व आत्मा की पवित्रता से होता है। आत्मसाक्षात्कार पाकर मोक्षप्राप्ति करना यह तो साधक की श्रद्धा और विश्वास पर ही निर्भर है। उसका उसके गुरु पर कितना विश्वास है , कितनी श्रद्धा है , उसी पर यह सब निर्भर होता है। श्रद्धा और विश्वास से ही मनुष्य का अपने गुरु के प्रति समर्पण हो जाता है। समर्पण होना यह एक बड़ी धटना है जो आत्मा के स्तर पर होती है । समर्पण हो जाने के बाद साधक अपने गुरु में सम

आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करना और आत्मसाक्षात्कार से मोक्ष प्राप्ति करना किस बात पर निर्भर होता है ?

आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करना और आत्मसाक्षात्कार से मोक्ष प्राप्ति करना किस बात पर निर्भर होता है ? मैंने उन्हें समझाते हुआ कहा , आत्मसाक्षात्कार पाना दो बातों पर निर्भर होता है - एक पूर्वजन्म के पुण्यकर्म हों तो आत्मसाक्षात्कार पाप्त हो सकता है। लेकिन वे पुण्यकर्म आत्मा की शांति के लिए ही किए गए हों ,अन्यथा आत्मसाक्षात्कार पाकर भी उसे साधक खो देता है क्योंकि वह उसका महत्व ही नहीं जानता। और दूसरा , आत्मा की शुद्ध इच्छा से अगर आप आत्मसाक्षात्कार को पाते हैं तो आप , आपको क्या मिला है इसका महत्व जानते हैं। और फिर आपकी आत्मा उस आत्मसाक्षात्कार को आत्मसात कर लेती है। यानी इस मार्ग में पुण्यकर्मों से भी अधिक महत्व आत्मा की पवित्रता से होता है। आत्मसाक्षात्कार पाकर मोक्षप्राप्ति करना यह तो साधक की श्रद्धा और विश्वास पर ही निर्भर है। उसका उसके गुरु पर कितना विश्वास है , कितनी श्रद्धा है , उसी पर यह सब निर्भर होता है। श्रद्धा और विश्वास से ही मनुष्य का अपने गुरु के प्रति समर्पण हो जाता है। समर्पण होना यह एक बड़ी धटना है जो आत्मा के स्तर पर होती है । समर्पण हो जाने के बाद साधक अपने गुरु में सम

आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करना और आत्मसाक्षात्कार से मोक्ष प्राप्ति करना किस बात पर निर्भर होता है ?

आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करना और आत्मसाक्षात्कार से मोक्ष प्राप्ति करना किस बात पर निर्भर होता है ? मैंने उन्हें समझाते हुआ कहा , आत्मसाक्षात्कार पाना दो बातों पर निर्भर होता है - एक पूर्वजन्म के पुण्यकर्म हों तो आत्मसाक्षात्कार पाप्त हो सकता है। लेकिन वे पुण्यकर्म आत्मा की शांति के लिए ही किए गए हों ,अन्यथा आत्मसाक्षात्कार पाकर भी उसे साधक खो देता है क्योंकि वह उसका महत्व ही नहीं जानता। और दूसरा , आत्मा की शुद्ध इच्छा से अगर आप आत्मसाक्षात्कार को पाते हैं तो आप , आपको क्या मिला है इसका महत्व जानते हैं। और फिर आपकी आत्मा उस आत्मसाक्षात्कार को आत्मसात कर लेती है। यानी इस मार्ग में पुण्यकर्मों से भी अधिक महत्व आत्मा की पवित्रता से होता है। आत्मसाक्षात्कार पाकर मोक्षप्राप्ति करना यह तो साधक की श्रद्धा और विश्वास पर ही निर्भर है। उसका उसके गुरु पर कितना विश्वास है , कितनी श्रद्धा है , उसी पर यह सब निर्भर होता है। श्रद्धा और विश्वास से ही मनुष्य का अपने गुरु के प्रति समर्पण हो जाता है। समर्पण होना यह एक बड़ी धटना है जो आत्मा के स्तर पर होती है । समर्पण हो जाने के बाद साधक अपने गुरु में सम

आभामंडल

आपका आभामंडल आपको एक सुरक्षा -कवच प्रदान करते रहता है , इसलिए उसको सशक्त बनाओ      आपका आभामंडल अगर सकारात्मक है , अछा है , तो वह आपको जीवन में खराब से खराब परिस्थिति में से बाहर निकालकर ले आएगा ।      और आसपास की खराब परिस्थिति का आपके ऊपर प्रभाव नही पड़ने देगा । परमपूज्य स्वामीजी       [ आध्यात्मिक सत्य ]

मनुष्य की उम्र

मनुष्य की उम्र जितनी बढ़ति जाएगी, उतना ही ध्यान करना, निर्विचारिता की स्थिति पाना कठिन हो जाएगा। ध्यान की आदत बच्चो को बचपन से लगानी चाहिए क्योंकि बचपन मे बुरे अनुभवों का जहर मनुष्य के पास नहीं होता है। इसलिए बच्चों के जीवन मे विचारों का भंडार भी नही होता है। 12 वर्ष की आयु से ध्यान सीखना चाहिए। आनेवाले समय मे मन कि एकाग्रता की बड़ी आवश्यकता होगी। तब बच्चो के काम ध्यान की  साधना ही आएगी। क्योकि आनेवाला समय कठिन होगा। क्योंकि टेक्नोलॉजी और मीडिया के हुए व्यापक प्रभाव के कारण बच्चों को अपना चित्त दूषित वातावरण से बचाने में ध्यान ही काम आएगा। जितना समय के साथ साथ विचारों का प्रदूषण बढ़ने लगेगा, वैसे वैसे जीवन मे कठिनाइयां भी बढ़ने लगेगी। श्री शिव कृपानंद स्वामी, - हिमालय का समर्पण योग - 6

नामकरण

सद्गुरु बच्चे की आत्मा देखकर बच्चे का नामकरण करते हैं |  सद्गुरु उस बच्चे की आत्मा को पहचानते हैं - वह आत्मा किस स्तर की है , उस आत्मा के पिछले जन्म में कौन से कर्म थे | उन सब कर्मों का लेखा जोखा देखकर इस जन्म में उस आत्मा का क्या उद्देश्य है और उस आत्मा की कौन सी दिशा है , वह दिशा सद्गुरु जानते हैं | -- अपने जीवन में अपने उद्देश्य को प्राप्त करे ,इसके लिए सद्गुरु उसे नाम से सम्बोधित कर अपने आशीर्वाद उसके साथ जोड़ देते हैं | प्रत्येक नाम के साथ एक आभामंडल होता है | और उस आभामंडल को जानकर उसे उपयुक्त शरीर के साथ नाम के रूप में जोड़ना एक बहुत महत्त्वपूर्ण घटना है | प्रत्येक आत्मा के जीवन के उद्देश्य अलग अलग होते हैं और प्रत्येक नाम का आभामंडल अलग अलग होता है | दोनों को जानकर , दोनों को पहचानकर ,दोनों को उपयुक्त रूप में जोड़ना और उन्हें एकत्र कर ,जोड़कर फिर अपनी सामूहिक शक्ति उस बंधन में प्रवाहित करना ,ऐसी त्रिवेणी संगम सद्गुरु द्वारा रखे गए नामकरण में होता है | हि.स.यो. १/२७७

श्री गादी स्थान का नीमाेण काये सपुंणे हो

आज सुबह  8 बजे हजारो पवीत्र और शुद्ध आत्माओ की उपस्थीती मे राजस्थान समेपण आश्रम अरडका अजमेर राजस्थान मे निम्न लीखीत वास्तुओ का खाद मोहरत हुआ 1.   भव्य आधुनीक साधनो से युक्त       भोजन शाला 2.  शिल्पकारो के लीये नीवासी हॉल 3.   पानी के लीये 10000 लीटर की          टंकी का स्टैन्ड व्यवस्था 4.    साघको को बैठने के लीये भव्य         सभा मंडप और आज श्री गादी स्थान का नीमाेण काये सपुंणे हो गया है। और आज से उसके उपर ही श्री गुरूशक्तीधाम का नीमाेण काये प्रांरभ हो गया है। और बांन्धकाम का प्रथम स्तंभ की स्थापना की गयी है।श्री गादी स्थान का मागे गभेगृह मे से ही है। इसलीये कब तक खुला रख सकते पता नही है। इसीलीये वह अस्थाई रूप से ही खुला है। स्थापना के “पवीत्र घटना” का जो भी पवीत्र और शुदध आत्माऐ साक्षी बनी उन सभी को खुब खुब आशिेवाद क्योकी यह एक ऐतीहासीक घटना थी।                   बाबा स्वामी राजस्थान समेपण आश्रम अरडका अजमेर राजस्थान

गुरुशक्ति को पत्र

हे  गुरुदेव , जिस  प्रकार  कार्य  क्षेत्र  को  विकसित  कर  रहे  हो , वैसे  ही  साधकों  के  र्हदय  को  भी  विकसित  करो  और  उनके  र्हदय  में  सभी  के  लिए  प्रेम  भर  दो । वे  जैसा  प्रेम  मुझसे  करते  है , वैसा  ही  प्रेम  वे  प्रत्तेक  मनुष्य  से  करे । क्योंकि  केवल  "बड़ी छत "बना  कर  क्या  करना  है ? उस  बड़ी  छत  के  नीचे  मेरे  सारे  बच्चे  एकत्र  होना  चाहिये । मेरी  स्थिति  उस  "कुतीया " जैसी  है  जिसके  आठ  बच्चे  होते  है  तो  भी  वह  सभी  बच्चों  को  एक  साथ  अपने  स्तनोँको  चिपका  कर  ही  रखना  चाहती  है । वैसे  ही  साधकों  की  संख्या  लाखों  की  हो  गई  पर  मुझे  मेरा  प्रत्तेक  साधक  प्यारा  है , दुलारा  है । मेरे  सभी  बच्चों  को  सुबुद्धि  दे ताकि  मेरे  जीवन  का  वे  सही  उपयोग  ले  सके ।  मुझसे  सही  मार्गदर्शन  पा  सके , मुझसे  सही  प्रश्न  पूछ  सके , मुझसे  शाश्वत  कुछ  प्राप्त  कर  सके ।  अनुभूति  का  "बीज "उनके  भीतर  भी  "आत्मभाव "अंकुरित  कर  सके ।  मेरा  यह  भाव  जानने  भी  मेरे  पास  कोई  नही  आता , इसलिए  यह  पत्र  लिख

समर्पण ध्यान है क्या ?

समर्पण   ध्यान   है   क्या ? हमारा   समर्पण   ध्यान  'समर्पण ' से   शुरू   होता   है । तो   जब   हम   समर्पित   है , हम   जानते   है   गुरुशक्तियाँ   हमे   बिल्कुल   हथेली   पे   कोमल   पुष्पों   की   तरह   सँभालति   है । तो   फिर   हम   उन   गुरुशक्तियोँ   के   प्रति   समर्पित   क्यों   नही   होते ? क्यों   हम   पूर्ण   विश्वास   नही   रखते   की   सब   जो   होगा   अच्छे   के   लिए   होगा । तो   जब   हम   पूर्ण   विश्वास   के   साथ   आगे   बढेन्गे   तो   कुछ   गलत   हो   ही   नही   सकता । किसी   तरह   से   कुछ   भी   गलत   नही   होगा । यदि   कहीँ   हम   असफल   है   भी , तो   असफल   देह   है   और   देह   को   सही   रास्ते   पे   लाने   के   लिए   मन   को   सही   रास्ते   पे   लाने   के   लिए   वो   परिस्थितियाँ   गुरुशक्तियोँ  ने   निर्माण   की ,  ताकि   वहाँ   ठोकर   खाओ   और   आप   सही   रास्ते   पे   आओ। पूज्या गुरुमाँ मकरसंक्रांती २०१७

श्री बड़े महाराजश्री की समाधि

दूसरे दिन मैं सबेरे-सबेरे, सूर्योदय के पूर्व ही श्री बड़े महाराजश्री की समाधि के पास जाकर  बैठ गया । वहाँ बैठकर मैं मन-ही-मन प्रार्थना कर रहा था," अभी तक आपने यहाँ पर विभिन्न प्रकार से मार्गदर्शन किया है,उसके लिए मैं हृदय से आपका आभारी हूँ।आपने कितने अच्छे-अच्छे लोगों को यहाँ पर इकट्ठा किया है और इतनी अच्छी आत्माओं की सामूहिकता मुझे प्रदान की है!मेरे ही जीवन में परेशानियाँ आईं,ऐसा नहीं है बल्कि यहाँ के प्रत्येक मुनि की आत्मकथा लिखी जा सकती है,इतना ज्ञान उनमें भरा पड़ा है। और प्रत्येक को आपने यहाँ आने के लिए प्रेरित किया है और आपको इन्होंने देखा तक नहीं था!तो यह कैसे हो पाया और क्यों हुआ?यह पहाड़ी इतनी दुर्गम है कि मुझे लगता है कि इस पहाड़ के बारे में मनुष्यजाति को पता भी नहीं होगा।" यह प्रार्थना मैं कर ही रहा था कि उनके चैतन्य की  अनुभूति मुझे होने लग गई,मेरे शरीर के स्पंदन बढ़ गए। बाद में उनकी ऊर्जा के साथ मेरी ऊर्जा के एकरूप हो जाने पर उनकी वाणी सुनाई देने लग गई।वे बोले," गुरु और शिष्य का रिश्ता सबसे पवित्र रिश्ता होता है और यह जन्मों-जन्मों तक चलते ही रहता है।यह तब तक नहीं

सुबह का ध्यान

सुबह का ध्यान हमारी आध्यात्मिक प्रगति करता है या ये समजे की सुबह ध्यान करके हम शक्तीयाँ  प्राप्त करते है। और शाम को ध्यान करके हम शक्तीयाँ बाँटते है, शाम का ध्यान सामूहिकता में करेंगे तो आपके माध्यम से दान होगा और जो आपके हाथ से दान होगा, आपका वही वृद्धिगत होगा। आप अगर आम के पेड़ लगाओगे तो आम ही लगेंगे। आप जो पेड़ लगाओगे वही लगेगा। ये प्रकृति का नियम है। मनुष्य जो प्राप्त करता है, वह बाँटता नही है। HSY - 6/ 272

केटल सांस्कृतिक बेदी

एक दिन सुबह केरल समझ के लोग मुझे मिलने आए। वे सब मिलकर ध्यान सीखना चाहते थे। उनकी अपनी एक संस्था थी - केटल सांस्कृतिक बेदी । उनमें से कुछ लोग पहले ध्यान सिख चुके थे। उन्हें एक दिन निच्छित करते बताया और रोज शाम ओफिस छूटने के बाद का कार्यक्रम रखा गया । रोज दोपहर को तो कामवाली चली जाती थी । इसलिए मैं स्वयं झाडू - पोछा करके हॉल (ध्यानखण्ड) रोज साफ करता था और बाद में दरी वगैरह बिछाकर तैयार करता था। और जब उनके सेवाधारी आते , तब तक वह हॉल तैयार करके उन्हें सौपकर नहाने चला जाता था भाग -६ - ६५

योगी और भोगी

योगी और भोगी को पहचानने के लीए आत्मज्ञान आवश्यक है । बाहर से तो दोनो समान ही लगते है । आप सभी "योगी "बने और संसार का "भोग "करते समय भी "योग "करे , यही प्रभु से प्रार्थना । आप सभीको खूब खूब आशीर्वाद । आपका                      बाबास्वामी

आत्मचिंतन

सभी पुण्यआत्माओं को मेरा नमस्कार..... आज सुबह-सुबह अपने ही जीवन पर आत्मचिंतन किया तो पाया – सदैव ध्यान करते-करते एक सकारात्मक सोच का निर्माण हुआ । सदैव जीवन में सकारात्मक भाव में ही जीवन जीया । केवल 'ध्यान' इस एक ही 'विषय' को पकड़कर मैने ५० साल से रखा हुआ है । सामान्य मनुष्य जैसे समाज में रहकर , जीवन के 'उतार- चढ़ावों' का सामना करके भी अपनी 'भीतर की स्थिति' वैसे ही बनाए रखना , यह सब केवल 'गुरुकृपा' में ही संभव हो सका है । और गुरुकृपा का 'प्रसाद' मुझे जीवन में  'गुरुकार्य' करने से ही मिला है और 'गुरुकार्य' सदैव 'निरपेक्ष भाव' के साथ ही किया है । जीवन में जो कुछ मिला है , वह कभी भी माँगा नही था । दोष देखना मेरा स्वभाव ही नही है । यही कारण है कि लाखों आत्माएँ मुझसे जुड़ पाई हैं । लेकिन इससे वे आत्माएँ कभी अपना दोष देख ही नही पाईं । और जो साधक दूर रहते हैं , उन्होंने मान लिया कि वे लोग पास हैं यानी वे 'दोषमुक्त' ही हैं , तभी स्वामीजीने उन्हें पास रखा है । वास्तव में 'सान्निध्य' तो उन्हे उनके पूर्वजन्म