गुरुजी का सान्निध्य
उस समय जो-जो किया था,वह गुरुजी के समाधिस्त होने के बाद सब सामने आने लग गया। हमें याद आने लग गया कि हम उस समय कार्य कम करते थे और कार्य किया, इसका दिखाव अधिक करते थे।गुरुजी के सामने काम जानबूझकर करते थे ताकि उन्हें लगे--हम बहुत काम करते हैं।इस प्रकार से हम हमारी ही आत्मा को,जो नहीं था,वह दिखाकर धोखा दे रहे थे। गुरुजी यह सब जानते थे लेकिन वे सदा अनजान ही बने रहते थे।हम लोगों में आपस में आत्मीय भाव भी नहीं था,आपस में ईर्ष्या का भाव रखते थे। और "मैं ने कार्य किया ", यह दिखाव करना भी ' मैं ' के अहंकार का ही प्रतीक था।कितनी छोटी-छोटी बातों पर झगड़ते थे!और सदैव ऐसे झगड़े लेकर उनके पास जाते थे।अब अपनी ही मूर्खता पर हँसी आती है कि अब याद भी नहीं आता कि वे झगड़े क्या थे और जो समय गुरुजी के साथ रहकर ज्ञान प्राप्त करने का था,वह हमने बेकार के झगड़े उनके सामने लाकर गवाँया था।
गुरुजी का जीवन अमूल्य है,हम यह नहीं जान पाए।और गुरुजी का सान्निध्य भी अमूल्य था जो हमें हमारे पूर्व पुण्यकर्मों के कारण मिला था।लेकिन उस सान्निध्य के अवसर को हमने बेकार के झगड़ों में गवाँया।आज हम सभी उस पर लज्जित हैं और आज हम सभी अपने-आपको ही उस परिस्थिति के लिए दोषी मान रहें हैं और आज हम में से प्रत्येक अपने-आपको ही दोषी समझ रहा है।काश! उस समय यह हुआ होता तो सान्निध्य का लाभ तो हम ले सकते थे!"...
हि.स.यो-४
पु-३८७
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