प्रत्येक ध्यान की पद्धति की कुछ सीमाएं

प्रत्येक ध्यान की पद्धति की कुछ सीमाएं होती हैं। ठीक इसी प्रकार से, समर्पण ध्यान कि भी सीमाएं है। इसमें अकेले में प्रगति नही हो सकती है। आप ध्यान करते हो, अकेले-अकेले करते हो; सामूहिक रूप से करो। तो एक सामूहिक क्रिया घटित होगी। अब आपकी सबकी आध्यात्मिक स्थिति तो एक समान नहीं है। किसी की अच्छी है तो किसीकी खराब। अब मान लो कि एक कि 75% स्थिति अच्छी है और एक कि 75% स्थिति खराब है। और दोनों मिलकर अगर ध्यान करते है तो ध्यान 50% स्थिति पर होगा। यानी हो सकता है जो पहला साधक है, जिसकी स्थिति अच्छी है, उसे उस  सामूहिक ध्यान में वह स्थिति का आनंद नही मिलेगा जो उसे अपने घर पर सुबह के ध्यान में आता है। लेकिन उससे इस ध्यान में चैतन्य का दान होगा। यानी वह अपने को प्राप्त चैतन्य को बो रहा है। वह बांटना बोने के समान ही है। और जो आप बोओगे भविष्य में उसी की फसल आनेवाली है। यह संसार का नियम है। आप जो कुछ लोगो को दोगे वही वापस कई गुना होकर आपको मिलने वाला है। यानी वह अच्छे स्थिति वाले साधक की भी आध्यात्मिक प्रगति हुई। क्योंकि उस साधक द्वारा अनजाने में चैतन्य का दान हुआ है और दान सदैव खेत मे बोए बीज के समान होता है। वह बीज सदैव अपना अस्तित्व नष्ट करके हजारों नए दानों को जन्म देता है। यानी पहले साधक की भी प्रगति होगी और दूसरे साधक को वर्तमान में चैतन्य की आवश्यकता थी, वह असंतुलित हो रहा था तो उसकी भी प्रगति होगी। क्योंकि सामूहिकता में अच्छा ध्यान लगा जब कि घर पे अच्छा ध्यान नही लगता था।

श्री शिवकृपानंद स्वामीजी,
हिमालय का समर्पण योग भाग -6 / पेज - 84,85

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