हिमखण्ड

कुछ स्थान ऐसे भी थे जहाँ पर तभी बर्फ जमा थी।कुछ जगहों पर गिरी हुई बर्फ पिघलकर पहाड़ की ढलान पर से आकर जमा हो गई थी,वहाँ पर हिमखण्ड के रूप में जमा हो गई थी। ऐसी बड़े हिमखण्ड वाली जगह के पास से जब हम गुजरते थे तो थोड़ा अंतर रखकर ही गुजरते थे।एक मनुष्य के पार पहुँचे बिना दूसरा मनुष्य रवाना नहीं होता था।उनके पास से गुजरते समय बहुत धीरे-धीरे  चलना पड़ता था क्योंकि थोड़ा-सा स्पंदन भी उन्हें पहाड़ से अलग कर सकता था,वे हिमखण्ड गिरकर बिखर सकते थे।और कोई भी गिरे तो सारे-के-सारे ही उसकी चपेट में न आ जाएँ और यदि एक व्यक्त्ति उसकी चपेट में  आ जाए तो मदद के  लिए कोई तो हो, इसलिए ऐसे स्थानों  से एक -एक
करके गुजरना पड़ता था,बहुत धीमे चलना होता था।हम जाते समय भी वैसे ही,धीरे-धीरे ही गए थे और वापसी में हमारे पास लकड़ियाँ,फल आदि भी थे।  " ये
हिमखण्ड पहाड़  का भाग नहीं होते हैं,जमा हुई बर्फ  की एक परत से होते   हैं।और गर्मी से ,
आवाज से,थोड़ी भी हलचल से यह परत गिर पड़ती है।"  ऐसा एक मुनि ने बताया। और वह परत सूरज की गर्मी से भी पिघलती थी लेकिन वह धीरे-धीरे पिघलती थी, अचानक गिरती नहीं थी। और वही बर्फ बाद में छोटे-छोटे झरने बनाती थी,वे झरने ही छोटी-छोटी नदियाँ बनाते थे और वे नदियाँ ही बड़ी नदी में मिलती थीं और बड़ी नदी समुद्र में मिलती थी और प्रकृति का चक्र चलते रहता था। उस भूभाग से श्री पारसनाथअधिक परिचित थे। साथ में आने  वाले अन्य साथी अलग-अलग होते थे पर वे तो सदैव आते थे। इसलिए उस रास्ते की संपूर्ण जानकारी उन्हें थी। वे वहाँ के चप्ते-चप्ते से वाकिफ थे। लेकिन वे मुझे वहाँ पहली बार ही लाए थे, इसलिए मेरे लिए वह सब नया था। बाकी लोग भी पहले कई बार वहाँ आ चुके थे,इसलिए वे सभी मेरी अधिक देखबाल कर रहे थे। मैं ही उनमें   नौसिखाया था।...

हि.स.यो-४                  
पु-३९२

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