सूर्योदय के पूर्व की वे लाल रंग की छटाएँ
सूर्योदय के पूर्व की वे लाल रंग की छटाएँ बड़ी ही सुंदर जान पड़ती थीं।सूरज की किरणों की गर्मी से आलसी बच्चों में भी नया उत्साह आ गया था।हम वह सूर्योदय का दृश्य काफी देर तक देखते रहे। तभी मैंने कहा,"हम लोग कहाँ -कहाँ से आए हैं और यहाँ इकट्ठा हुए हैं!हमें पहले कोई कहता तो हमें विश्वास नहीं हो पाता कि हम,भारत के अलग-अलग स्थानों के लोग यहाँ इकट्ठा होकर इतने सुंदर दृश्य को देखेंगे।" और इस पर सभी मुस्करा दिए। और बाद में हम सभी वहाँ से चल दिए। तभी काफी कार्य बाकी था। हमने कार्य को बाँट लिया।दो लोगों ने फल आदि लिए और बाकी दो लकड़ियाँ लेकर चलने लगे।हम जाते समय लकड़ियों के गट्ठे रखते हुए गए थे और इसलिए वापस आते समय उन गटठों को उठाते हुए लौटने का कार्यक्रम बनाया था। वापस आते समय थोड़ा चलते,फिर रुखते, फिर चलते,ऐसा चल रहा था।जो लकड़ी के गट्ठे बाँधकर रखे थे, लकड़ी के वे गट्ठे ही वापसी में हमारे पथप्रदर्शक थे। उन लकड़ी के गटठों से हम जान जाते थे कि हम किस रास्ते से आए थे।और हमें उसी रास्ते से वापस जाना था और वे लकड़ी के गट्ठे ही हमारी निशानी थे जिससे हम रास्ता पहचान रहे थे। हमने गट्ठे रखते समय ही ऐसे स्थानों पर रखें थे कि चारों ओर से ,कहीं से भी देखों तो भी वह गट्ठा दिख जाए। क्योंकि उस जंगल में रास्ता खो जाने का डर तो होता ही था क्योंकि सारा जंगल एक जैसा ही था, हमारे बाँधे हुए लकड़ी के गट्ठे अलग दिखाई देते थे।उठते-बैठते हुए हम चल रहे थे। शाम तक तो हमें हमारे पहाड़ पर पहुँचना ही था,यही लक्ष्य लेकर हम चल रहे थे।...
हि.स.यो-४
पु-३९०
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