आध्यात्मिक क्षेत्र के नियम

मैंने कहा, तेरी व्यवहारिक शिक्षप्रणाली की बात बराबर है। लेकिन इस आध्यात्मिक क्षेत्र के नियम कुछ अलग ही हैं। इसमें सद्गुरु अपना सभी ज्ञान तत्क्षण भी शिष्य में प्रवाहित कर सकते हैं , बसर्ते शिष्य इतनी ग्रहण करने की योग्यता रखता हो। इस क्षेत्र में समर्पण ही सब कुछ होता है। सदगुरु से अनुभूति पाकर शिष्य को उस अनुभूति के सहारे सद्गुरु को समर्पित होना मात है। एक ही क्षण में शिष्य को सद्गुरु की स्थिति प्राप्त हो जाएगी। क्योंकि उस क्षण के बाद शिष्य का अपना अलग अस्तित्व ही नहीं होगा। शिष्य और सद्गुरु के बीच दीवार जैसा होता है शिष्य के शरीर का अहंकार। और उसे के कारण शिष्य सद्गुरु के शरीर तक ही देखा पाता है , उस शरीरधारी परमात्मा को नहीं अनुभव कर पाता है जो उस शरीर के भीतर से बह रहा है। परमात्मा तो एक विश्वव्यापी शक्ति है , वह निराकार में ही होती है। लेकिन जब कोई आकाररूपी शरीर में रहकर शरीर के अस्तित्व को शुन्य कर लेता है तो वह उसके माध्यम से बहने लग जाती है।

भाग - ६ ५४/५५

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