श्री बड़े महाराजश्री की समाधि
दूसरे दिन मैं सबेरे-सबेरे, सूर्योदय के पूर्व ही श्री बड़े महाराजश्री की समाधि के पास जाकर बैठ गया । वहाँ बैठकर मैं मन-ही-मन प्रार्थना कर रहा था," अभी तक आपने यहाँ पर विभिन्न प्रकार से मार्गदर्शन किया है,उसके लिए मैं हृदय से आपका आभारी हूँ।आपने कितने अच्छे-अच्छे लोगों को यहाँ पर इकट्ठा किया है और इतनी अच्छी आत्माओं की सामूहिकता मुझे प्रदान की है!मेरे ही जीवन में परेशानियाँ आईं,ऐसा नहीं है बल्कि यहाँ के प्रत्येक मुनि की आत्मकथा लिखी जा सकती है,इतना ज्ञान उनमें भरा पड़ा है। और प्रत्येक को आपने यहाँ आने के लिए प्रेरित किया है और आपको इन्होंने देखा तक नहीं था!तो यह कैसे हो पाया और क्यों हुआ?यह पहाड़ी इतनी दुर्गम है कि मुझे लगता है कि इस पहाड़ के बारे में मनुष्यजाति को पता भी नहीं होगा।" यह प्रार्थना मैं कर ही रहा था कि उनके चैतन्य की अनुभूति मुझे होने लग गई,मेरे शरीर के स्पंदन बढ़ गए। बाद में उनकी ऊर्जा के साथ मेरी ऊर्जा के एकरूप हो जाने पर उनकी वाणी सुनाई देने लग गई।वे बोले," गुरु और शिष्य का रिश्ता सबसे पवित्र रिश्ता होता है और यह जन्मों-जन्मों तक चलते ही रहता है।यह तब तक नहीं समाप्त होता,जब तक दोनों को मोक्ष नहीं मिल जाए। प्रथम तो गुरु मोक्ष की स्थिति पाता है और बाद में वह शिष्य का इंतजार करता है। ये सभी पूर्वजन्म से ही मेरे शिष्य हैं और इन्हें मोक्ष की स्थिति देना मेरा ही कर्तव्य है। मैंने शरीर त्याग दिया है लेकिन अभी भी मेरी आत्मा इन सबका इंतजार तब तक करते रहेगी, जब तक ये उस स्थिति को प्राप्त नहीं कर लेते। हम सभी एक साथ चले थे,ये लोग पीछे रह गए हैं। इन्हें साथ लिए बिना मैं अपने स्थान पर कैसे जा सकता हूँ?इस जन्म में,हो सकता है,ये मुझे जानते नहीं थे पर मैं तो इन्हें जानता था। मैंने भी सपने में उन्हें उसी रूप में दर्शन दिया जिस रूप को वे जानते थे।"...
हि.स.यो-४
पु-३९४
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