वृक्ष
हम किसी भी वृक्ष को काटते नहीं थे,हम तो वृक्ष की जो सूखी डगालें नीचे पड़ी रहती थीं,उन्हें ही काटकर उनके एक-जैसे टुकड़े करके उनका गट्ठा बन लेते थे।और उसमें भी विशिष्ट वृक्षों की ही लकड़ियाँ लेते थे। कई जगह अपने स्थानों से उखड़े हुए वृक्ष दिखे लेकिन वे भी अपने ही पड़ोस के वृक्षों में अटक गए थे क्योंकि नीचे गिरने के लिए खाली जगह ही नहीं थी।ऐसे वृक्ष के निचे से हम सतकर्ता के साथ ही जाते थे क्योंकि उस उखड़े हुए वृक्ष के हमारे ऊपर ही गिरने का डर रहता था। एक जगह तो ऐसा दृश्य देखा कि एक वृक्ष अपने स्थान से उखड़कर अलग हो चुका था लेकिन वह नीचे की ओर से ही टूटा था और इसलिए करीब दो फुट का भाग तब भी जमीन की जड़ों के साथ ही था। और उस दो फीट के तने से फिर से नया वृक्ष उग रहा था,मानो तब भी उसमें जीने की दृढ़ इच्छाशक्त्ति थी। मानो तूफान ने उस वृक्ष को गिराया था पर वह अपना रूप बदल कर फिर से जी उठा था। और तब भी परिस्थिति से हार मानने के लिए वह वृक्ष तैयार नहीं था,तब भी जीने की जिद थी।और वह नए वृक्ष के रूप में आकर ले रहा था। वह देखकर ,
परिस्थितियाँ चाहे कितनी भी विषम हों,मनुष्य को कभी हार नहीं माननी चाहिए,ऐसे संदेश हमें उस वृक्ष से मिला। हम सभी इकट्ठा होकर प्रकृति का वह चमत्कार देख रहे थे।...
हि.स.यो-४
पु-३९१
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