आत्मचिंतन

सभी पुण्यआत्माओं को मेरा नमस्कार.....

आज सुबह-सुबह अपने ही जीवन पर आत्मचिंतन किया तो पाया – सदैव ध्यान करते-करते एक सकारात्मक सोच का निर्माण हुआ । सदैव जीवन में सकारात्मक भाव में ही जीवन जीया । केवल 'ध्यान' इस एक ही 'विषय' को पकड़कर मैने ५० साल से रखा हुआ है । सामान्य मनुष्य जैसे समाज में रहकर , जीवन के 'उतार- चढ़ावों' का सामना करके भी अपनी 'भीतर की स्थिति' वैसे ही बनाए रखना , यह सब केवल 'गुरुकृपा' में ही संभव हो सका है । और गुरुकृपा का 'प्रसाद' मुझे जीवन में  'गुरुकार्य' करने से ही मिला है और 'गुरुकार्य' सदैव 'निरपेक्ष भाव' के साथ ही किया है । जीवन में जो कुछ मिला है , वह कभी भी माँगा नही था ।

दोष देखना मेरा स्वभाव ही नही है । यही कारण है कि लाखों आत्माएँ मुझसे जुड़ पाई हैं । लेकिन इससे वे आत्माएँ कभी अपना दोष देख ही नही पाईं । और जो साधक दूर रहते हैं , उन्होंने मान लिया कि वे लोग पास हैं यानी वे 'दोषमुक्त' ही हैं , तभी स्वामीजीने उन्हें पास रखा है । वास्तव में 'सान्निध्य' तो उन्हे उनके पूर्वजन्मों के कर्मों के कारण प्राप्त हुआ था ।

मैं साधको की 'माँ' बना पर साधको का 'गुरु' कभी न बन सका जबकि मुझे 'आत्मज्ञान' 'माँ' से नही , 'गुरु' से मिला था । मनुष्य मरते दम तक अपनी 'माँ' और 'गुरु' दोनों को 'कभी नही भूल' सकता क्योंकि एक 'माँ' शरीर को जन्म देती है और एक 'माँ' आत्मा को जन्म देती है । मेरे 'ह्रदय' में आने का ही मार्ग है , जाने का नही । आज पता चल रहा है , मेरे सभी गुरु एसा क्यों कहते थे , "तेरा हण्ड़ा बहुत बड़ा है ।" जो भी इस ह्रदयरुपी हण्ड़े में आ जाता है , बस वह वहीं का होकर रह जाता हैं । लाखों आत्माओं का , एक आत्माओं का सागर भीतर विद्यमान है ।

एसा नहीं कि जो साधक आए , उन्होंने मुझे शरीर से छोड़ दिया , ध्यान भी छोड़ दिया । लेकिन ऐसे भी साधक उनके 'अंतिम समय' में मुझे ही याद करते है । क्योंकि मृत्यु के पूर्व वैसे भी शरीर का भाव छूट जाता है, और रह जाता है 'आत्मा का भाव' । और आत्मा ने तो छोड़ा ही नही था । छोड़ा था शरीर ने और अब शरीरभाव तो रहा ही नही । एसी स्थिति में उनकी 'आत्मा' को एक सही दिशा देता हुँ ताकि वे इस जन्म में 'मोक्ष की स्थिति' प्राप्त भले ही न कर पाए , अगले जन्म में अवश्य प्राप्त करेंगे ।

मुझे सदैव लगता है कि अगर कोई भी साधक अगर मेरे कारण ध्यान में 'आता' है तो वह मेरे कारण ही ध्यान से 'बाहर' हो । आज तक मैने किसी को ध्यान से दूर किया ही नही है और न मैं कर सकता हूँ । पर अगर कोई किसी अन्य साधक के कारण जाता हैं तो मैं अपने- आपको समझाता हूँ कि वह साधक तो 'निमित्य' (निमित्त) बना इस साधक को ध्यान से दूर करने के लिए I वास्तव में , उसके पूर्वजन्म के कर्मो के कारण ही यह साधक ध्यान से बाहर हो गया ।

वास्तव में , आत्मा 'ध्यानमार्ग' से दूर नहीं होती है । आत्मा अगर ध्यान से दूर होती तो उसका शरीरभाव छूट जाने के बाद अंतिम समय में मुझे माध्यम के रुप में याद नहीं करती । वास्तव में , मनुष्य के भीतर का 'मैं' उस शरीर को ध्यानमार्ग से दूर करता है । यह 'मैं' आध्यात्मिक मार्ग में सबसे बड़ी रुकावटें खड़ी करता है । और जब तक 'मैं' विद्यमान है , गुरुकृपा कभी भी हो नहीं सकती है । आप आपके ही जीवन के वह 'कठिण (कठिन) पल' याद करें , जब आपकी 'समस्या' को दूर करने के सारे प्रयत्न कर चुके थे और जब आपने मान लिया था – अब यह समस्या मेरे से दूर होने वाली नही है । आपका यह मानना ही 'मैं' से मुक्त होना था और आपने जब 'गुरु शक्तियों' को अपने-आपको समर्पित किया , आपकी 'समस्या' दूर हो गई । यानी 'मैं' समस्या को निर्माण करता है , पकड़कर रखता है । बस आपको समस्या छोड़ने की आवश्यकता होती है । आप आपके जीवन की समस्या को 'मैं' से छुड़ा सकें ताकि आपकी समस्या दूर हो , इसी शुद्ध इच्छा के साथ आप सभी को खूब-खूब आशीर्वाद !!

- आपका
बाबा स्वामी

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