गुरुसांनिध्य जीवन में सबसे अधिक महत्वपूर्ण
" हम तीनों मुनि जब समाज में थे तो हमारी आपस में पटती नहीं थी। फिर भी हम तीनों को हमारे गुरुजी सदा साथ ही रखते थे।और झगड़े केवल कार्य को लेकर होते थे। हम तीनों कामचोरी करते थे, हम सभी आलसी थे।और फिर भी हमारे गुरुजी ने हम तीनों को साथ में रखा था।उनका स्नेहभरा साथ हमारा आकर्षण था।हम तीनों उन्हीं के कारण एकत्रित थे। हम तीनों में यहाँ आकर एकदम बदलाव आ गया। यहाँ के प्राकृतिक वातावरण का ही कुछ प्रभाव होगा कि यहाँ हम आने के बाद हमारे कभी आपस में झगड़े हुए हों,यह मुझे याद नहीं। अब हमारे ही व्यवहार पर लज्जा आती है कि कैसी छोटी-छोटी बातों को लेकर हम झगड़ते थे!
गुरुसांनिध्य जीवन में सबसे अधिक महत्वपूर्ण होता है। उस सान्निध्य का हमने उपयोग नहीं किया था। हमने सदैव अपने झगड़े लेकर हमारे गुरुजी को तंग किया था। वे बेचारे क्या करते,वे हम तीनों को झेलते थे।वे किसी का भी पक्ष नहीं लेते थे, उनके लिए हम तीनों एक समान थे।लेकिन आज अपने ऊपर ही लज्जा आती है की सदैव छोटी-छोटी बातों के झगड़े गुरुजी तक ले जाकर हमने उनकी ध्यान साधना में विघ्न डाला। कभी-कभी लगता है, बाहरी बुरी आत्माएँ ही हमारे माध्यम से हमारे गुरुजी को तंग कर रहीं थीं। हमारे गुरुजी का संसार हम तीनों तक ही सीमित
था। और हमारे गुरुजी को परेशान करना हो तो केवल हम उसके माध्यम थे क्योंकि उनके आसपास हमारे सिवा कोई रहता ही नहीं था।"...
हि.स.यो-४
पु-३८५
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