गुरुमंत्र

जिस प्रकार से , एखादे ( एकाध) जहरीले , अनावश्यक  वूक्ष को समूल संसप्त करने के लिए किसान , आदिवासी कुछ रसायनयुक्त पानी बनाकर उस वूक्ष के जड़ में डालते हैं और नियमित रूप से डालते हैं। और परिणाम स्वरूप वह जहरीला वूक्ष स्मूच सुख जाता है
ठीक इसी प्रकार से, अपने शरीरभाव रूपी वूक्ष को इस मंत्र के रसायन से समाप्त कर सकते हो।और जब शरीर- भाव संपूर्ण समाप्त हो जाता है , तब हमारी आत्मा इस योग्य बन जाती है कि हम  गुरुमंत्र ग्रहण कर सकें। और बाद में जब हम गुरुमंत्र लेते हैं तो उस गुरुमंत्र का चैतन्य हम संपूर्ण ग्रहण कर सकते हैं। सदगुरु के महत्व को समझकर बाद में गुरुमंत्र लेते हैं तो हम सुपात्र हो जाते हैं , गुरुमंत्र की ऊर्जाशक्ति को ग्रहण करने के लिए। क्योंकि तब हमारे में न शरीर का कोई दोष होता है और न कोई शरीर का विकार होता है फिर जो गुरुमंत्र लेते है तो गुरुमंत्र के माध्यम से हम सदगुरु को सपूर्ण समर्पिता हो जाते हैं। समर्पित हो जाते हैं। यानी हमारी आत्मा का अलग कोई अस्तित्व ही नहीं होता और फिर जो भी स्थिति सदगुरु की होती है , वह स्थिति हमें प्राप्त हो जाती है।

भाग ६ -- ५०

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