अंतिम जन्म

" मेरे अंतिम जन्म में मैंने नया देहरूपी चोला पहना था। वे वह चोला देखकर भ्रमित होते इसलिए मैंने ,वे जान पाएँ ऐसे ही रूप में दर्शन दिया है।चोला तो प्रत्येक जन्म में जन्म की परीस्थिति के अनुसार ही धारण किया जाता है। हम बाहरी चोलों को महत्व नहीं देते हैं। भीतर की ,आत्मा की भावना तो वही है,वह भावना ही अपने शिष्य को प्रेरणा देती है। गुरु के शरीर की रचना दूसरे के लिए ही हुई होती है,इसलिए वह अपने शिष्यों के प्रति पूर्ण समर्पित होता है। गुरु प्रत्येक क्षण , अपने शिष्यों की प्रगति कैसे हो,कैसे उन्हें समझाया जाए, कैसे मार्गदर्शन किया जाए,क्या कहने पर वे समझेंगे,उनकी दृष्टि से क्या करना उचित होगा,ऐसे सभी तरीकों से शिष्य के लिए सोचते रहते हैं।क्योंकि गुरु को अपने बारे में तो कुछ करना ही नहीं होता।वे शिष्य का मार्गदर्शन करने के सही स्थान और सही समय का ही इंतजार करते रहते हैं।इन सभी से मेरे पुराने संबंध हैं। इसलिए मुझे तो इनका मार्गदर्शन करना ही था। मेरे और बहुत से शिष्यों का यहाँ आना बाकी है। उनके यहाँ पहुँचने तक मुझे उनका यहीं इंतजार करना होगा।"...

हि.स.यो-४               
पु-३९५

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