आठ सौ साल के बाद आत्मज्ञान का सूर्योदय

" संत ज्ञानेश्वर ने कहा -
आठ सौ साल के बाद आत्मज्ञान का सूर्योदय होगा ।

उन्होनें
सिर्फ कहा ही नहीं ,
उन्होनें संकल्प भी किया कि
सूर्योदय हो -
जब
कुंडलिनी जागृति का कार्य सामूहिकता में हो सके ।

एक आत्माने
संकल्प को लेकर इस दिशा में अपना प्रवास शुरू किया ।

उसने अपना ज्ञान
अपने शिष्य को दिया -
उसने अपने शिष्य को दिया ।

शिष्य
से
शिष्य -
ऐसे आठ सौ वर्षों तक चलता रहा ।

आत्मा
इच्छाशक्ति के साथ
बार बार पुनर्जन्म ले रही थी
और
संकल्प साकार करने के सही समय का इंतजार कर रही थी ।

लेकिन
संकल्प को लिए सिर्फ इच्छाशक्ति ही पर्याप्त नहीं थी ।
आवश्यकता थी की उसे क्रियाशक्ति का साथ मिले ।

इसके बीच के समय में
आत्मा ने
अलग-अलग जाति, धर्म, रंग और स्थानों पर जन्म लिया ।

वह
उस उषाकाल का इंतज़ार कर रही थी जब इच्छाशक्ति और क्रियाशक्ति का मिलन हो ।
वह आत्मा
नवयुग के सूर्योदय का इंतज़ार कर रही थी
क्योंकि
शिव का शक्ति के बिना कोई अस्तित्व ही नहीं है ।

इच्छाशक्ति
और
क्रियाशक्ति का मिलन होने पर ही
श्री गणेश का निर्माण -
एक अबोध बालक के समान शिष्य का निर्माण संभव है ।
इस जन्म में गुरुमाँ के रूप में क्रियाशक्ति का साथ इच्छाशक्ति को मिला ।

शिवबाबा
इस शरीर के गुरु है
परंतु
वे उसी इच्छाशक्ति युक्त आत्मा के शिष्यों के शिष्य है -

सबसे आखिरी शिष्य -
जिसने संकल्प के साथ आठ-सौ साल पहले अपना प्रवास शुरू किया ।

इसलिये
ना कोई मेरे गुरु थे
और
ना ही मैं किसी का शिष्य हूँ ।"

- श्री शिवकृपानंद स्वामीजी
- दशहरा संदेश
लेस्टर, यु.के.
2 अक्टूबर, 2006

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