जीवंत गुरु के एकदम करीब रहने का अवसर
" गुरुजी के समाधिस्त होने के बाद जाना कि किसी जीवंत गुरु के एकदम करीब रहने का अवसर अगर हमें कभी जीवन में मिलता है तो वह पूर्व पुण्यकर्मों
के कारण ही होता है।क्योंकि इस जन्म में तो ऐसा कुछ नहीं किया था कि वे हमने अपने पास रखते।
बल्कि हमने उन्हें उनके जीवनकाल में अनजाने में परेशान ही किया था। जब परेशान किया था, तब नहीं लगा लेकिन आज वह याद आने पर मन आत्मग्लानि से भर जाता है। अपने से गुरु को पहुँची हुई चोट का दर्द गुरुजी के समाधिस्त होने के बाद ही होता है।ऐसा इसलिए होता है कि जब आप किसी गुरुजी की सेवा करते हो, समझो उन्हें भोजन कराते हो तो इतनी खुशी मिलती है मानो सहस्रभोज करवाया हो।यानी हजार लोगों को भोजन कराने का समाधान केवल गुरुजी को कराकर मिलता है।वैसे ही, गुरुजी के हृदय पर पहुँचाई गई चोट जैसा भाव देती है। एक पाप की भावना से दिल भर आता है और यह दर्द उन्हें देहत्याग कराने के बाद ही महसूस होता है क्योंकि उन घटनाओं को हम उनके जीवनकाल में सामान्य ही समझते हैं।जीवंत गुरु के जीवनकाल की एक घटना ही नहीं ,एक पल भी सामान्य नहीं होता है। लेकिन हमें बहुत बड़ी कीमत चुकाने के बाद यह ज्ञात हुआ है। लेकिन अब क्या करें?पश्चाताप के अलावा और कर भी क्या सकते हैं?"...
हि.स.यो-४
पु-३८६
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