*॥जय बाबा स्वामी॥*
'मैं' के अहंकार को विसर्जित करना जितना कठीन है , उससे अधिक कठीन, वह फिर से न आ जाए , इसका ध्यान रखना होता है। यानि 'समर्पण' करना जितना कठिन है , उससे अधिक कठिन 'समर्पण' को बनाए रखना है। यह और अधिक कठिन है क्योंकि 'मैं' सतत प्रयासरत होता है अपनी वापसी के लिए। उसके प्रयत्न सतत चलते रहते हैं कि , वह स्थान शरीर में पा जाए जो उसे पहले प्राप्त था। ऐसे समय उसके हमलों से अपने-आप को बचाए रखना एक शरीर के लिए कठिन नही , असंभव ही मालूम पडता है।
एक शरीर चाहकर भी अपने-आपको इस अहंकार से बचा नहीं सकता। इस अहंकाररुपी राक्षस से बचने का एक ही उपाय है - वे सभी शरीर साथ में आ जाएँ जो बचना चाहते हैं। उन लोगों की सामूहिकता की शक्ति ही उन्हे बचा सकती है , और कोई , मार्ग ही नही है। इसलिए आध्यात्मिक प्रगति के लिए सामूहिकता को अधिक महत्व दिया गया है। लेकिन वह सामूहिकता शरीर के साथ-साथ आत्माओं की भी होनी चाहिए , तभी 'मैं' के अहंकार से बचा जा सकता है।
*हिमालय का समर्पण योग ३/३१७*
*॥आत्म देवो भव॥*
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