सारे किए गए अर्पण में या समर्पण में भी हमारा जो अहंकार है वह विधमान है। मैंने यह अर्पण किया , मैंने यह समर्पण किया। यानी मैंने किया, यह मैं है ही। यानी समाज में जो अर्पण और समर्पण का अर्थ लगाते हैं वह और हिमालय में ऋषि - मुनि जो समर्पण का अर्थ लगते हैं वह , इसमे जमीन - आसमान का अंतर है। हिमालय के ऋषि मुनियों की भाषा में समर्पण शब्द का अर्थ है  - अपने माध्यम के साथ समरस होना। परमात्मा निराकार है और एक विश्वव्यापी शक्ति है। और वह विश्वव्यापी शक्ति निराकर स्वरूप में है लेकिन उस निराकार स्वरूप तक पहुँचने लिए हम जिस आकार का सहारा लेते हैं , हम जिस आकार को माध्यम बनाते हैं वही माध्यम को परमात्मा का माध्यम मानकर उस माध्यम से पूर्णतः समरस हो जाना ही पूर्ण समर्पण है। उस माध्यम से समरस होना शरीर के स्तर पर संभव ही नहीं है। क्योंकि शरीर की बाघाएँ , शरीर के विकार , शरीर की सीमाएँ आड़े आएँगी ही। इसीलिए प्रथम यह समझ लो समर्पण कभी भी शरीर से नहीं हो सकता है क्योंकि सामने वाला शरीर नहीं है। सामने वाला माध्यम परमात्मा से एकरूप हो गया है। यानी उसका शरीर का भाब ही नहीं है , वह संपूर्णत : आत्मभाव में चला गया है और तभी वह परमात्मा का माध्यम बन सका है। परमात्मा एक विश्वचेतना है। उससे तो शरीर से समरस हो ही नहीं सकते हैं। प्रथम वह माध्यम कैसे समरस हुआ है यह समझ लो तो आपको केवल उसका अनुकरण करना है। मानना सारी शिक्षा की जड़ है। हम  अ अनार का मानते हैं , जबकि अ से अनार का कोई  संबंध नहीं होता है। जिस प्रकार अ तक पहुँचने के लिए अनार का साकार रूप हम सामने रखते हैं , ठीक इसी प्रकार परमात्मा तक पहुँचने के लिए माध्यम का रूप , आकर सामने रखना है। एक बार अ - अनार सीख गए तो अनार को पकड़कर बैठते हैं क्या ? नहीं , ठीक इसी प्रकार से माध्यम वह अनार है , जिसने बिना आध्यात्मिक शिक्षा का अ सीखा नहीं जा सकता है। यानी कोई भी शिक्षा हो , बिना मानना के प्रारंभ ही नहीं हो सकती है। और मानना आत्मा का भाव होता है।
भाग - ६ - १८२-१८४

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