आपका चित्त खाने में से पूर्ण ही निकल जाए , यही इस यात्रा का उदेश होता है। कोई बात प्रथम विचार में आती है। अधिक बार विचार में आने से चित्त में आती है और चित्त में आने से कूती शरीर से होने की संभावना होती है । यहाँ कोई विशिष्ट व्यंजन खाने का विरिध नहीं है। लेकिन यही व्यंजन खाने को चाहिए , यह बार - बार सोचने से विरिध है। क्योंकि आप जब खाते हैं , तब तो केवल खाने की क्रिया होती है लेकिन जब आप सोचते हैं तो चित्त दूषित होता है। पवित्र , शुद्ध चित्त से ही आध्यात्मिक कार्य की शुरुआत की जा सकती है। समर्पण ध्यान एक ध्यान की पद्धति है जिसमें परमात्मा के माध्यम के माध्यम से परमात्मा रूपी विश्वचेतना से ध्यान के द्धारा अपने-आपको जोड़ा  जाता है। दूसरा , यह पद्धति दो बातें पर ही निर्भर करती है। एक तो सामूहिकता। यह पद्धति से ध्यान में प्रगति करने के लिए ध्यान सामुहिकता में करना आवश्यक होता है। और दूसरा , ध्यान नियमित करना आवश्यक होता है। कोई भी अभ्यास हो , कोई भी साधना हो , नियमितता तो सदैव आवश्यक होती ही है। प्रथम हमें हमारे शरीर को उस ध्यान की पद्धति के लिए तैयार करना पड़ता है। क्योंकि प्रथम हमारे शरीर ही हमारा विरोध करता है क्योंकि इस ध्यान पद्धति में आत्मा के अधीन होकर जीना सिखलाया जाता है। इस पद्धति में आत्मा को अधिक महत्त्व दिया जाता है। क्योंकि माना जाता है कि मनुष्य के जीवन की जितनी भी समस्याएँ हैं , सब मनुष्य के शरीर से संबंघीत हैं। यानी मनुष्य शरीर के अधीन होकर जीत है और इसीलिए मनुष्य को जीवन में समस्याओं का अनुभव होता है।
भाग - ६ १९२/१९३

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