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_* गुरुदेव ने बड़े प्रेम से मेरे सिर पर हाथ फेरा और कहा,” बेटा, जीवन में जो भी पाना चाहते हो, वह देना सिख लो। फिर पाना नहीं पड़ेगा, स्वयं ही मिल जाएगा। “*_
_* जय बाबा स्वामी*_
🍁🙏🏻🍁
_*HSY 3 pg 70*_

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*॥जय बाबा स्वामी॥*

वह समाधी देहत्याग करने के बाद कई सालों पर्यंत तब तक क्रियान्वित रहती हैं जब तक सद्गुरु का संकल्प रहता है।  सद्गुरु अपनी संकल्प शक्ति से उस (समाधिस्थ) शरीर के माध्यम से कार्यरत रहते ही हैं। इसलिए सद्गुरु की समाधी के पास जाने से , दर्शन करने से भी मनुष्य के दुःख दूर होते हैं , मनुष्य की पीडा नष्ट होती है , मनुष्य के बिगडे हुए काम बन जाते है। क्योंकि सकारात्मक शक्तीयों का एक प्रवाह सद्गुरु के शरीर से सदैव बहता ही रहात है।

सद्गुरु के समाधिस्थ होने के पच्चीस सालों के बाद उनके समाधीस्थान को महत्व मिलना प्रारंभ हो जाता है।

*हिमालय का समर्पण योग ४/५०*

*॥आत्म देवो भव:॥*

*॥जय बाबा स्वामी॥*

मैं कई सालों से ये 'समर्पण ध्यान योग' का प्रचार कर रहा था , प्रसार कर रहा था , निशुल्क कर रहा था। अब मेरे को अच्छा लग रहा है इसलिए कर रहा था। अब इसके अंदर तो कोई ईगो या अहंकार आने का प्रश्न ही नही था न? उसके बावजूद भी अहंकार था। अहंकार ये था कि मैं मेरे पैसो से आता हूँ , मैं मेरे पैसो से जाता हूँ। किसी से कुछ नही लेता। मेरेको अच्छा लगता है इसलिए ये कार्य करता हूँ। ये अहंकार मेरा शिर्डी के साईबाबा ने तोडा है।

          *--- पूज्य गुरुदेव*
           दांडी १७/२/२०१५

*॥आत्म देवो भव॥*

आप किसके जीवनकाल में आए हो

आप किसके जीवनकाल में आए हो , आपको किसके जीवनकाल में जुडने को मिल रहा है , उसकी तरफ ध्यान दो। किसी भी संस्था के मूल पुरुष के साथ कार्य करने का एक अनोखा ही आनंद प्राप्त होता है। वह आनंद बादमें जीवन में कभी प्राप्त नहीं होता है। कई संस्थाएँ बन जाती है , कई आश्रम बन जाते हैं , पर वे आश्रम बन जाने के बाद में जो उस आश्रम का मुख्य संस्थापक है , कितने लोगों को उसके साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ?
शिर्डी के साईबाबा के समय भी यही बात थी। कितने जन उनको जानते थे? उनको पागल फकीर कहते थे। आज शिर्डी का महात्म्य इसलिए बढ गया है क्योंकि उनका सूक्ष्म शरीर भी विकसित हो गया है , उनका ऑरा विकसित हो गया है। उनका प्रभाव आम आदमी पर पडने लगा है।
---- *पूज्य गुरुदेव*
२५/१/२००३

*॥जय बाबा स्वामी॥*

४) *सामान्य चित्त - :* यह चित्त एक सामान्य प्रकृती का होता है। इस चित्त में अच्छे, बुरे दोनो ही प्रकार के विचार आते रहते हैं। यह जब अच्छी संगत में होता है , तो इसे अच्छे विचार आते हैं और जब यह बुरी संगत में रहता  है तब उसे बुरे विचार आते रहते हैं। यानी इस चित्त के अपने कोई विचार नहीं होते। जैसी अन्य चित्त की संगत मिलती है , वैसे ही उसे विचार आते है। वास्तव में वैचारिक प्रदूषण के कारण नकारात्मक विचारों के प्रभाव में ही यह 'सामान्य चित्त' आता है।

५) *निर्विचार चित्त -:* साधक जब कुछ 'साल' तक ध्यान साधना करता है तब यह निर्विचार चित्त की स्थिति साधक को प्राप्त होती है। यानी उसे अच्छे भी विचार नही आते और बुरे भी विचार नही आते। वर्तमान की किसी परिस्थितिवश अगर कही चित्त भी गया तो भी वह क्षणिकभर ही होता है। जिस प्रकार से बरसात के दिनों में एक पानी का बबूला एक क्षण ही रहता है , बाद में फूट जाता है , वैसे ही इनका चित्त कही भी गया तो एक क्षण के लिए जाता है , बाद में फिर अपने स्थान पर आ जाता है। यह आध्यात्मिक स्थिति की प्रथम पादान होती है क्योंकि फिर कुछ साल तक अगर इस स्थिति में रहता है तो चित्त का सशक्तिकरण होना प्रारंभ हो जाता है और साधक एक सशक्त चित्त का धनी हो जाता है।

क्रमशः .....

*मधुचैतन्य जन २०१५*

*॥आत्म देवो भव:॥*

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