सद्गगुरु एक माध्यम

३१.  सदगुरु को व्यवहारिक ग्यान नहीं होता। क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए, क्या अच्छा दिख सकता है, क्या नहीं दिख सकता इस प्रकार के ग्यान से वह  परे होता है। सदगुरु प्रायः अपने दोषों को ही आपके सामने प्रथम रखेगा, यही तुम्हारा परीक्षा-समय है। उन दोषों के परे झाँकना होगा। ऐके समय आप आपका चित्त क्या दिख रहा है, वह मत देखो। क्या अनुभव हो रहा है, वह देखो। दिखना तो आँख का धोका है।
३२.  सदगुरु आचार्य नहीं है जो उसके आचरण के कारण जाना जाए। आचरण झूठा भी हो सकता है वह आचरण से भी परे है।
३३.  सदगुरु को उसके आचरण से पहचान पाना कठिन होता है।  क्योंकि आचरण तो झूठा हो सकता है। सदगुरु केवल अनुभव करने की शक्ति है।
३४.  खुशबू कभी लेना नहीं फडती है। खुशबू खुद-ब-खुद अपना एहसास करा ही देती है। ठीक उसी प्रकार से कितने भी भीतर लाख पर्दो मैं सदगुरु को छुपाकर रखा हो, वह अपने चैतन्य का एहसास करा ही देता है।
३५.  जिस प्रकार खुशबू देखने की चीज नहीं है, अनुभव करने की चीज है, ठीक उसी प्रकार से सदगुरु भी अनुभव करने की चीज है।
३६.  "पानी पिओ छानकर, सदगुरु बनाओ जानकर।"  बस, जानना आत्म-अनुभूति से होना चाहिए।
३७.  सदगुरु एक है क्योंकि वह तो माध्यम है, उसके भीतर से बहनेवाली परमात्मा की शक्ति एक है। इसलिए उसे शरीर समझने की भूल मत करो। शरीर समझा तो परमात्मा से अलग हो जाओगे।
३८.  सदगुरु परमात्मा के शक्ति का माध्यममात्र है जो समय और परिस्थिति के अनुसार सदैव बदलते रहता है। आज का माध्यम आज की परिस्थितिनुसार होगा। तभी तो वह आज का माध्यम होगा।
३९.  सदगुरु माध्यममात्र है। वह किसी को कुछ नहीं दे सकता है, बस उसके सानिध्य में हमें पा लेना पडता है।
४०.  उसकी स्थिति खाली, निखालस पाईप के समान होती है। यह खालीपन के कारण ही वह एक अच्छा माध्यम सिद्ध होता है।
६१.  आलोचना बुद्धि से होती है और सदगुरु के पास ह्रदय से जाया जाता है। परमात्मा तक पहुँचने का रास्ता ह्रदय से होता है।
६२.  ह्रदय मानता है और परमेश्वर भी मानने की चीज है। आपको मानना होगा। जितने मानोगे, उतना ही  'मैं' का अहंकार कम होगा।
६३.  'मैं' को झुकने के लिए माध्यम की आवश्यकता होती है। ऐसा माध्यम जिसके सामने,  'मैं' झुक सके।  वह माध्यम शरीर, स्थान, समाधि, मूर्ति, फोटो, कुछ भी हो सकता है।
६४.  ऐसा माध्यम, बस जहाँ परमपिता परमेश्वर याद आ जाए। जैसे ही परमात्मा पर चित्त जाता है,  हम आत्मशांति का अनुभव करते है।
६५. सब माध्यम निमित्त होता हैं आपको झुकने के लिए। हाँ, झुकना सदैव सामूहिकता में आसान होता है क्योंकि झुकने के लिए भाव चाहिए। मन चंचल है, अच्छा भाव आने ही नहीं देता है। अच्छा भाव तो सामूहिकता में ही आ सकता है।
६६.  सदैव चढने के लिए हमें सहारे की आवश्यकता हो ती है। पर गिरने के लिए कोई सहारे की आवश्यकता नहीं होती है।
६७.  इसी प्रकार से आध्यात्मिक उन्नति के लिए आध्यात्मिक उन्नत माध्यम की आवश्यकता होती है। आध्यात्मिक पतन के लिए कोई सहारे की आवश्यकता नहीं होती है। गिरा अकेले भी जा सकता है।
६८.  आध्यात्मिक सहारा सामूहिकता का होना चाहिए और सामूहिकता के लिए सदगुरु सर्वश्रेष्ठ माध्यम है। इसलिए 'गुरु साक्षात परब्रह्म' कहा है।
६९.  सदगुरुरूपी माध्यम  से जुडने से आशय उसके साथ की सामूहिकता की शक्तियों से जुडने से है।
७०.  हम अपने आप को जितना सामूहिकता के साथ जोडेंगे, उतना ही हमारा  'मैं' का भाव कम होगा।  और जितना  'मैं' का भाव कम होगा, उतना ही अपने अस्तित्व का बोध कम होगा।
९१. जीवन में आवश्यक है, कोई तो हमें हमारी गलतियाँ बतानेवाला हो क्योंकि कई बार हम अपनी गलतियाँ जान ही नहीं पाते हैँ।
९२.  इसके लिए 'सदगुरु' को आत्मा का स्थान मानना होगा।  मानोगे तो ही वह स्थान बनेगा। क्योंकि सब दिल का मानना है। मानो तो भगवान् है और न मानो तो पत्थर है।
९३.  मानना आत्मा का भाव है और मानने पर ही हम आत्मपरीक्षण कर सकते हैं, याने शरीर का परीक्षण आत्मा बनकर । लेकिन हमें आत्मा बनने के लिए किसी को तो आत्मा मानना होगा।
९४.  आत्मा परमात्मा का स्वरूप है। आत्मा कभी भूल नहीं करता। गलतियाँ करता है, वह शरीर है। शरीर के दोष हैं जो बार-बार गलतियाँ करते रहता है। पर जब वह आत्मस्वरूप हो जाएगा, तब आत्मा तो गलती नहीं करता है।
९५.  सदगूरु तो हमारे झुकने का निमित्तमात्र  है। वास्तव में हमारा *'मैं'* का अहंकार अपने ही आत्मा के सामने झुकते रहता है, याने हम हमारे सामने ही झुकते रहते हैं।
९६.  किसी सामान्य शरीर को असामान्य मानना वास्तव में बुद्धि पर आत्मा की विजय है। क्योंकि मानना आत्मा का शुद्ध भाव है जो बुद्धि से परे है।
९७.  बुद्धि से जाना जा सकता है। आत्मा से माना जा सकता है। बुद्धि जहाँ पर गिर जाती है, वहीं से आत्मा का उदय होता है।
९८.  बुद्धि सिर्फ जान सकती है जो दिखता है। जो दिखता नहीं है, केवल महसूस किया जा सकता है, वह काम आत्मा का है। आत्मा महसूस कर सकती है।
९९.  जीवन में आनंद भी महसूस किया जाता है, जाना नहीं जाता।
१००. इसलिए जीवन का आनंद महसूस करने के लिए आत्मपरिक्षण करो, आत्मग्यान को प्राप्त करो जो आत्मग्यान आपके जीवन को आनंद से भर देगा।

आध्यात्मिक सत्य, पृष्ठ. ५०-५२

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