*॥जय बाबा स्वामी॥*

"सद्गुरू अपना सभी ज्ञान तत्क्षण भी शिष्य में प्रवाहित कर सकते हैं , बशर्ते शिष्य इतनी ग्रहण करने की योग्यता रखता हो। इस क्षेत्र में 'समर्पण' ही सब कुछ होता है। सद्गुरू से अनुभूति पाकर शिष्य को उस अनुभूति के सहारे सद्गुरू को समर्पित होना मात्र है। एक ही क्षण में शिष्य को सद्गुरू की स्थिति प्राप्त हो जाएगी। क्योंकि उस क्षण के बाद शिष्य का अपना अलग अस्तित्व ही नहीं होगा।

शिष्य और सद्गुरू के बीच दीवार जैसा होता है- शिष्य के शरीर का अहंकार। और उसी कारण शिष्य सद्गुरू के शरीर तक ही देख पाता है, उस शरीरधारी परमात्मा को नहीं अनुभव कर पाता है जो उस शरीर के भीतर से बह रहा है।

परमात्मा तो एक विश्वव्यापी शक्ति है, वह निराकार में ही होती है। लेकिन जब कोई आकार रूपी शरीर में रहकर शरीर के अस्तित्व को शून्य कर लेता है तो वह उसके माध्यम से बहने लग जाती है।  उस माध्यम को ही हम 'सद्गुरू' कहते हैं और वह भूतकाल का हो जाने पर उसे भगवान का दर्जा देते है।

लेकिन उससे ग्रहण न वर्तमान में करते हैं और न भूतकाल का हो जाने पर करते हैं। जीव तो शरीर के ही अहंकार में लिप्त होता है। यह शरीर का 'मैं' का अहंकार शरीर और शरीर से संभंधित समस्याओं में उसे इतना लिप्त रखता है कि इस शरीर के बाहर कोई दुनिया है , इसका एहसास ही नहीं होने देता है। यह सब शरीर को प्रधानता देने से होता है।

*हिमालय का समर्पण योग ६/५४*

*॥आत्मदेवो भव॥*

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