_* आत्मशांति की दिशा भीतर ही है। इसका ज्ञान मनुष्य को नहि है। वह ज्ञान एक बार मनुष्य को हो जाए, वह आत्मशांति पा ही लेगा। क्यूँकि मनुष्य आत्मशांति चाहता तो है, खोज भी रहा है, पर आत्मशांति की खोज बाहर हो रही है। बस उसे सही दिशा देने की आवश्यकता है। *_ _* जय बाबा स्वामी*_ 🌺🙏🏻🌺 _*HSY 1 pg 441*_
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Showing posts from May, 2018
स्वामीजी के प्रति पूर्ण समर्पण
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कई बार साधक अपना अहंकार बनाए रखते हैं और सोचते हैं कि मेरा तो स्वामीजी के प्रति पूर्ण समर्पण है , मैं तो पूर्ण समर्पित हूँ। लेकिन वास्तव में वह दुसरों के प्रति अच्छा या बुरा भाव रखते हैं। किसी के प्रति अच्छा भाव रखना और बुरा भाव रखना दोनों ही समर्पण के भाव से विरुद्ध है । सभी के प्रति समान भाव खो। अच्छा भी मत रखो, बुरा भी मत रखो । सबके प्रति एक-सा भाव रखो अगर आपका पूर्ण समर्पण हैं तो आपका भी आपके गुरुदेव के समान सबके प्रति समान भाव का अनुभव होगा । मधुचैतन्य जुलाई, ऑगस्ट, सप्टेंबर २००९ पन्ना ७
बच्चे बचपन से ध्यान करते हैं तो उनके आसपास एक आभामण्डल निर्माण हो जाएगा
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जिस प्रकार से किसी बँक में डाका डालना हो तो पहले लुटेरे किसी स्थान पर बैठकर शराब पीते हैं और शराब पीकर अपनी नकारात्मक शक्तियों को बठ़ाते हैं और बाद में बँक में ढाका डालते हैं। यानी कोई भी पाप करने के पहले आपसे पास उस पाप को करने की नकारात्मक ऊर्जा होनी चाहिए। जब वह नकारात्मक ऊर्जा निर्माण हो जाएगी , तभी वह पाप धटित हो पाएगा। तो अगर आपके बच्चे बचपन से ध्यान करते हैं तो उनके आसपास एक आभामण्डल निर्माण हो जाएगा। एक पूण्य का आभामण्डल , एक सकारात्मक ऊर्जा का आभामण्डल , तो उनके हाथ से कभी पाप ही नहीं होगा। क्योंकि पाप कर्म करने के लिए उनके पास पाप की ऊर्जा ही नहीं होगी। इस प्रकार आपने बच्चे पाप कर्म करने से बच। जाएँगे। और आपके बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो जाएगा। बच्चों के व्यवहारिक शिक्षा पर काफी प्रयास किया जा रहा है , लेकिन इस आध्यात्मिक शिक्षा को भी व्यवहारिक शिक्षा के साथ जोड़ा जाना चाहिए। यह जब हम कर पाएँगे तभी हम हमारे बच्चों को संपूर्ण तैयार कर पाएँगे। बच्चों पर माँ-बाप के विचारों का भी बहुत ही प्रभाव पड़ता है , विशेषत : माँ के विचारों का। कई बार माँ अपने बच्चे के साथ इतनी अधिक अटॅच
आभामंडल
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२१. जिस प्रकार से प्रत्येक व्यक्ति की अँगूठे की छाप अलग होती है, ठीक उसी प्रकार से प्रत्येक व्यक्ति का आभामंडल निजी होता है। उस आभामंडल से व्यक्ति को पहचाना जा सकता है। २२. इसी आभामंडल से उस व्यक्ति के पूर्वजन्म के बारेमें भी जानकारी प्राप्त की जा सकती है। २३. व्यक्ति के विचार बदलने पर यह आभामंडल भी बदलता है। इसके रंग भी बदलते हैं। यह स्थाई रूप का नहीं होता, वर्तमान स्थिति के अनुसार बदलता है। २४. आज तो मशीनों के द्वारा भी इसे देखा जा सकता है, जाना जा सकता है। २५. मनुष्य की मृत्यु के ३ दिनों तक यह बना रहता है, पर धीरे-धीरे बुझ जाता है। २६. माँ के गर्भ में जब बच्चा आ जाता है, तभी से उसका आभामंडल बनना प्रारंभ हो जाता है। इसीलिए अच्छे आभामंडल के बच्चे के प्रभाव से गर्भावस्था में माँ का भी आभामंडल अच्छा हो जाता है। २७. माँ के संस्कारों का, माँ के विचारों का, माँ के सान्निध्य का उस बच्चे के आभामंडल पर भी अच्छा या बुरा, दोनों ही प्रकार का प्रभाव पडता है। २८. इसीलिए गर्भावस्था में माँ को अच्छी संगत में रहना चाहिए, अच्छे विचार करना चाहिए, अच्छा संगीत सुनना चाहिए, अच्छा
आभामण्डल
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अगर मान लो , आप सदैव सकारात्मक विचार करो कि मेरी दुर्धटना ही कभी नहीं हो सकती है, तो आपका विचार आपके विश्वास में बदल जाएगा। और फिर उस विश्वास से एक आपके आसपास आभामण्डल बन जाएगा और आपकी कभी भी दुर्धटना नहीं होगी। अब मैं भी अगल-अलग वाहनों से प्रवास करता हूँ , कभी बस से भी प्रवास करता हूँ लेकिन मेरी कभी दुर्धटना नहीं हो सकती है , यह विश्वास मैंने निर्माण कर लिया है। तो इसी विश्वास का आभामण्डल मेरे आसपास निर्माण हो गया है। और इसी विश्वास के निर्मित आभामण्डल के कारण मेरी कभी कोई दुर्घटना नहीं हुई है। तो आप भी आपके विचारों को सकारात्मक रूप से बदलकर अपना आभामण्डल बदल सकते हैं। यह आभामण्डल आपके आसपास सदैव अच्छा ही वातावरण रखेगा। अब माँ और बाप को चिंता होती है कि उनके बच्चे सदैव अच्छी संगत में रहें और सदैव बच्चों पर नजर रखना संभव नहीं होता। लेकिन याद रखें , पाप और पुण्य का ज्ञान प्राप्त करके कुछ नहीं होता है। हमारे यहाँ हमारे नाना-नानी , दादा-दादी अपने बच्चों को पाप और पुण्य का खाली ज्ञान देते हैं कि कौन सी बातें पाप हैं और कौन सी बातें पूण्य हैं।लेकिन केवल यह ज्ञान उनको पाप करने से रोक नही
समस्या
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कभी-कभी तो हम समस्या के इतने अधीन हो जाते हैं कि जीवन छोटा और समस्या बड़ी मालूम होती है। सारा जीवन ही समस्या ग्रस्त मालूम जान पड़ता है। जबकि यह होता नहीं है।जीवन बहुत बड़ा है और उस बड़े जीवन में एक क्षण ही समस्या रहती हैं। लेकिन जीवन समस्या नहीं है। जीवन में समस्या है। समस्या औऱ जीवन दोंनो अलग-अलग हैं।लेकिन हम समस्या को अधिक महत्व देते हैं। और जीवन को कम और " जीवन समस्या है " ऐसे मानने लग जाते हैं। और जो मानने लग जाते है वह होना प्रारंभ हो जाता है। औऱ वास्तव मे ही जीवन समस्याग्रस्त हो जाता है। " साधक " के मानने पर ही सबकुछ निर्भर होता है। मधुचैतन्य जुलाई, ऑगस्ट, सप्टेंम्बर २००९ पन्ना ५
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आपको अगर आपकी आध्यात्मिक स्थिति कैसी है यह जानना है तो आप देखो आपके संबंध दूसरो से कैसे है । आपके संबंध सबसे एक जैसे होने चाहिए । ना किसीसे कम ना किसीसे जादा । बोलते है ना , ना किसीसे प्रेम, ना किसीसे बैर। दोनो से समान संबंध होने चाहिए ।अच्छे भी नही और बुरे भी नही। तो ऐसा करने मे अगर आप सफल होते हो, तो आप देखोगे धीरे धीरे आपका चित् शुध्द होगा, चित पवित्र होगा, और चित् को शुध्द रखने मे जितने आप सफल होंगे, आपका चित उतना ही पवित्र होता जायेगा । और जितना पवित्र होता जायेगा, उतना सशक्त होता जायेगा । Madhuchaitanya April, May, June 2009 Jay Baba Swami
आभामंडल
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११. इसीलिए मनुष्य पहली बार अपराध करने के लिए विचार करता है - अपराध करुँ या ना करुँ ? लेकिन एक बार कर देने के पश्चात लगातार अपराध करता चला जाता है। इसलिए मनुष्य ने अपने पहले अपराध करने से ही बचना चाहिए, नहीं तै अपराध उसके हाथ से होते चले जाएँगे और लह अपराधी हो जाएगा। १२. इस जगत का कोई कानून मनुष्य को अपराध करने से नहीं रोक सकता है। कानून का कार्यक्षेत्र तो अपराध हो जाने के बाद प्रारंभ होता है तो कानून अपराध को कैसे रोक सकता है ? अपराध को रोक सकता है तो वह आत्मा है जो अपराध होने के पूर्व जानता है - यह अपराध है, नहीं करना चाहिए। १३. आत्मा अगर सशक्त हुई तो वह शरीर को अपराध करने से रोक सकती है। और समर्पण ध्यान आपकी आत्मा को ही सशक्त करता है। और इसीलिए आपके हाथ से अपराध नहीं हो पाता है। आत्मा का सशक्त होना अत्यंत आवश्यक है। बुद्धि के विकास के साथ-साथ आत्मीयता कम हो रही है। यह बात अच्छी प्रतीत नहीं होती। यह समाज में असंतुलन पैदा करेगी। १४. आज के सायन्स के युग में बुद्धि का तेजी के साथ विकास हो रहा है। आज के सायन्स के युग मे रोज नए-नए आविष्कार हो रहे हैं। पहले शरीर की शक्ति का युग
अनुष्ठान मैं एक जैन साधु ने गुरूमाँ से क्या माँगा होगा आप कल्पना नहीं कर सकते
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अभी पैतालीस दिन का अनुष्ठान हुआ ना... .. तो अनुष्ठान मैं एक जैन साधु ने गुरूमाँ से क्या माँगा होगा आप कल्पना नहीं कर सकते उसने गुरूमाँ से ये माँगा कि कुटीर की धूल ला के मेरेको दों की वो लेके मैं साथ में जाऊँगा | स्वामीजी मेरे साथ हैं , ऐसा मैं महसूस करता हूँ | तो कुटीर में वो जो धूल पडी़ है ना , वो झाडू से साफ करके मेरेको एक डब्बी में भरके लाके दों | ये गुरूमाँ से माँगा , वो जैन मुनि ने | तो गुरूचरण की धूल मेरे पास रहेगी , तो मैं महसूस करूगाँ कि स्वामी जी मेरे साथ में हैं | दुसरा थोड़ा ना , उनसे कम्पेरीझन मत करो | मैं पाँचसो किलोमीटर चलके तुम्हारे पास आता हूँ और वो पाँचसो किलोमीटर चलके मेरे पास आते हैं इसमें अंतर है ना ! रीसीविन्ग ( ग्रहण शीलता ) में फकॅ पडे़गा ही...... समझ में आया ? मैं पाँचसो किलोमीटर तुम्हारे पास आता हुँ और वो मेरे पास पाँचसो किलोमीटर आते है ...... चलके तो वो अंतर नहीं है क्या ? पू
हिमालय
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उन ऋषि और मुनियों की तपस्या का प्रभाव इस समूचे क्षेत्र पर होता है। सारा ऊपर का हिमालय ही इन श्री क्षेत्रों से भरा पड़ा है , पानी ऊपर तो कोई जगह ही नहीं है , जो किसी श्री क्षेत्र की न हो। इन क्षेत्रों के आसपास भी अगर कोई आया और वे नहीं चाहते कि आप भीतर प्रवेश करें , तो आप वहाँ जाकर भी दिशा भूल जाएँगे और अन्य किसी और चले जाएँगे। यानी दिशाभूल हो जाती है। और यह श्री क्षेत्र का प्रभाव ही हमारी दिशाभूल करता है। इन श्री क्षेत्रों में तो समर्पित होकर , समरस होकर ही जा पाया था। और बाद में तो गुरु ने दूसरे गुरु के पास भेजा था। और जब एक गुरु दूसरे गुरु के पास भेजते , तो मेरे वहाँ पहुँचने के पहले मेरे आनी की सूचना पहुँच जाती थी। यह श्री क्षेत्र के भी सात भाग होते हैं। हमारे शरीर के भीतर यह जो सात चक्र हैं , ये सातों चक्रों के अपने क्षेत्र होते हैं और वे ही सात श्री क्षेत्र बनाते हैं। और एक के बाद एक लेयर ( परत) को क्रॉस कर सकता है। और यही कारण है कि कोई भी मनुष्य इस श्री क्षेत्र में प्रवेश ही नहीं कर सकता है। और यह आभामण्डल और श्री क्षेत्र कल्पना नहीं हैं। आपकी अगर आध्यात्मिक स्थिति है यह सब आपको
सुपात्र शिष्य के इंतजार में
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अब तो बस बाकी बचा जीवन उन शिष्यों के इंतज़ार मे ही कटेगा, ऐसा प्रतीत होता है क्योंकि अब जीवन में पाने के लिए कुछ रह ही नहीं गया है । बस, सबकुछ देने की इच्छा है । पर इच्छा करके दे नहीं सकता । जब तक सुपात्र शिष्य नहीं मिलेंगे, वह दिया नहीं जा सकता । इस आध्यात्मिक ज्ञान के खजाने का द्वार खोलकर मैं आँखों की पलकें बिछाकर इंतजार कर रहा हूँ - जो आए और मेरे खजाने को लूटकर ले जाए जो लुटाने के लिए मैं बैठा हूँ। जब तक वे नहीं आते , मेरे हाथ में कुछ नहीं हैं । हैं तो बस इंतजार , इंतजार..... और इंतजार........... सुपात्र शिष्य के इंतजार में........ मधुचैतन्य जुलाई,ऑगस्ट, स्प्टेंम्बर 2009 पेज 4
आत्मसमर्पण
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" *ऐसा* ही कुछ.., *गुरु* के साथ भी होता है, *वह* तो *भक्तों के भाव से प्रसन्न रहता है* । उसके *शिष्य* , जो *पसंद* करते हैं.., वही वे *अपने गुरु को प्रदान* करते हैं। उस *'गुरु* ' की, *अपनी कुछ इच्छा* ही नहीं होती है..,। *यह तो शिष्य* की इच्छाएं होती है, जिन्हें *पूर्ण करना* , उनका *स्वभाव* है। वे तो *वही स्वीकारते* हैं, जो *शिष्य* देता है..। और *शिष्य वही देगा,* जो *उसके पास है* । अगर- *गुरु जंगल* में है, तो जंगल के *सर्वश्रेष्ठ फल* उनके पास होंगे.., और *गुरु- समाज* में है, तो *समाज की सब-सुख सुविधाएं* , उन्हें प्राप्त होंगी-- *ऐसा होते हुए* भी, ' *गुरु' न तो* जंगल की *सर्वश्रेष्ठ फलों मैं 'रमते'* हैं, और ना ही.. *समाज द्वारा* दी गई *सुख-सुविधाओं में* । *वे तो,* *अपनी ही मस्ती* में *मस्त* रहते हैं। *इसीलिए गुरु कहलाते हैं..।* *गुरु को शिष्य* , कुछ भी *दे नहीं* सकता है। *नदी समुद्र को* क्या दे सकती है? *हां..!* *नदी समुद्र में* *समर्पित* हो सकती है- ठीक इसी *प्रकार* , *गुरु भी शिष्य का* *आत्मसमर्पण चाहते हैं।* *ताकि वे* *शिष्य की आत्मा को* , आगे का *मा
एक वृद्ध मछूहारा
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" प्रभो , इस विश्व में परमात्मा तो कण -कण में ही फैला है । आपको कहाँ अनुभव होता है , वह महत्वपूर्ण है । हमें आप में अनुभव हुआ , हमारे लिए आप ही परमात्मा है । आपकी कृपा से ही हमारे प्राण बचे है । प्रभो , परमात्मा किसे मानना है , यह आत्मा का शुद्ध भाव है । बस , आत्मा जिसे मान ले , वही परमात्मा है । हमें आपके दर्शन करके ऐसा अनुभव हुआ की हमने परमात्मा को पा लिया है । " एक वृद्ध मछूहारा ही.का.स.यो.२-३२
पूज्य स्वामीजी , चित को हमेशा अपने भीतर रखने के लिए क्या उपाय करना चाहिए ??
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Que:- पूज्य स्वामीजी , चित को हमेशा अपने भीतर रखने के लिए क्या उपाय करना चाहिए ?? Ans:- जिस प्रकार से दरवाजे के अंदर कोई व्यक्ति बैठा हुआ है , तो कोई भी चोर दरवाजे से भीतर आने का प्रयास नहीं करेगा | ठीक उसी प्रकार से , आप सदैव आपका चित कहाँ है इसके ऊपर अगर चित रखोगे , अपने चित का सदैव निरिक्षण करते रहेागे , तो आप देखोगे चित बाहर जाना बंद कर देगा | तो चित को भीतर रखने का ये ही मार्ग है , ये ही रास्ता है कि चित के ऊपर चित रखे | चित का निरक्षण करो , सतत एलर्ट ( सतर्क) रहो कि मेरा चित इस समय कहाँ है?? दूसरा , मन और चित इसके अंदर भी अंतर है | मन का सबंध शरीर के साथ है | मन दु:खी या सुखी हो सकता है | चित दु:खी या सुखी नहीं होता | चित का संबंध आत्मा के साथ है | चित पवित्र और अपवित्र हो सकता है | लेकिन चित दु:खी या सुखी नहीं हो सकता | तो चित का केवल निरिक्षण करो | तो भी आप देखोगे , चित भीतर ही रहना सीख जाएगा | डॉ. सेमिनार , सुरत , 6जून 2014
समर्पित पत्थर की खोज
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मैं उस समर्पित पत्थर की खोज कर रहा हुँ , जो भूतकाल का आवरण छोड़ सके , जिस पत्थर में मूर्ति बनने की बेसब्री न हो और जो पत्थर अहंकार से भरा न हो । क्या मुझे ऐसा कोई समर्पित पत्थर मिलेगा जिससे मैं मूर्ति का निर्माण कर सकु ? क्या एक ऐसा पत्थर मिलेगा जो मुझे पाकर ही धन्य हो जाए , मूर्ति बनने का विचार भी उसके मन में न हो । एक पवित्र चित्त वाला पत्थर मैं ढूँढ़ रहा हुँ । मुझे आज भी उसकी तलाश है । मेरी आँखें उसे देखने के लिए, मिलने के लिए तरस रही हैं । कहीं तुं तो मेरा वह प्रतिक्षित पत्थर नहीं हो ? "मेरा प्यारा साधक" २००६
जैसे ही गुरुशक्तीधाम में प्रवेश करते है
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हम जैसे ही गुरुशक्तीधाम में प्रवेश करते है , हमारा दीमाख काम करना बंद कर देता है , और एक शून्य की अवस्था प्राप्त हो जाती है , और शरीर भाव संपूर्ण समाप्त हो जाता है और आत्मभाव स्थापित हो जाता है । और ऐसी स्थिती में भी आप अगर कोई समस्या से ग्रस्त हो तो आप ऐसी स्थिती में भी आप आपका चित्त उस समस्या में डालकर उस समस्या को दूर करने की प्रार्थना करते है , और ऐसी शून्य की स्थिती में की गयी प्रार्थना ही आपकी समस्या को दूर करती है । परमात्मा को तो एक "भाव की भाषा " ही समझती है । तो सामान्य मनुष्य की भी समस्या केवल मंगलमुर्ति के दर्शन मात्र से ही दूर होगी । ...... परमपूज्य गुरुदेव सौराष्ट्र आश्रम ९/३/२०१४
परमात्मा
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परमात्मा एक है। परमात्मा सबकी माँ है। परमात्मा की भाषा चैतन्य की भाषा है। परमात्मा का धर्म मनुष्य धर्म है। परमात्मा सभी मनुष्यों से बात करना चाहता है; बस मनुष्य जब तक अपने शरीर से निर्मित विचारों पर नियंत्रण नहीं करता, तब तक परमात्मा की चैतन्य की भाषा समज नहीं सकता है। इसलिए निर्विचारता आवश्यक है और निर्विचारता के लिए ध्यान आवश्यक है। HSY 1 pg 287
आदर्श साधक
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४१. यह सदगुरु से आत्मिक स्तर पर जुडा रहता है। इसलिए इसे शरीर का आकर्षण नहीं होता है। ४२. अब प्रश्न उठता है, ऐसे आदर्श साधक को पहचानेंगे कैसे ? पहली पहचान-इसे मिलने के बाद आपको अच्छा लगेगा, इसके साथ आपको नकारात्मक विचार नहीं आएँगे। ४३. हम किन स्तर के साधकों की संगत में रहते हैं, उसी के उपर हमारी आध्यात्मिक प्रगति होती रहती है। ४४. इसलिए सदैव अच्छे आदर्श साधकों की संगत में रहो, तो कुछ ना कुछ पाओगे। ४५. साधक भी तीन प्रकार के होते हैं। पहला साधक 'रोगी साधक' होता है। इसे शरीर की अनेक बीमारियाँ रहती हैं और इसका चित्त सदैव अपनी बीमारियों पर ही होता है। और बीमारियों में सदैव चित्त रखने से इसका चित्त भी बीमार व अस्वस्थ रहता है। यह नहीं जानता - बीमारियाँ शरीर की हैं, वह तो आत्मा है। दूसरा साधक 'भोगी साधक' होता है। इसका चित्त भोग-विलास में होता है। यह प्रायः अतृप्त देखा गया है। इसे शरीर की कोई बीमारी नहीं होती, पर मन की अतृप्ति होती है। इसका मन सदैव किसी ना किसी लालसा में लिप्त होता है। इसका चित्त कभी काम-वासना में लिप्त रहता है, तो कभी भौतिक साधनों में। य
मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण
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मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है । आसूरी [ नकारात्मक ] गुण मोक्ष के बाधक है और दैवी [ दिव्य ] गुण मोक्ष कारक है । अज्ञान बंधन कारक है और ज्ञान मुक्तीदायक है । अहंकार , रजोगुण और तमोगुण बंधन करते है । ऋण , हत्या और वैरभाव , ये सब मोक्ष मार्ग में बाधक होते है । सिद्धियाँ भी मोक्ष में बाधक है। **************** ही .का .स .योग [ ३ ] ~~~~~~~~~~~
समर्पण ध्यान है क्या ?
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हमारा समर्पण ध्यान है क्या ? हमारा समर्पण ध्यान 'समर्पण ' से शुरू होता है । तो जब हम समर्पित है , हम जानते है गुरुशक्तियाँ हमे बिल्कुल हथेली पे कोमल पुष्पों की तरह सँभालति है । तो फिर हम उन गुरुशक्तियोँ के प्रति समर्पित क्यों नही होते ? क्यों हम पूर्ण विश्वास नही रखते की सब जो होगा अच्छे के लिए होगा । तो जब हम पूर्ण विश्वास के साथ आगे बढेन्गे तो कुछ गलत हो ही नही सकता । किसी तरह से कुछ भी गलत नही होगा । यदि कहीँ हम असफल है भी , तो असफल देह है और देह को सही रास्ते पे लाने के लिए मन को सही रास्ते पे लाने के लिए वो परिस्थितियाँ गुरुशक्तियोँ ने निर्माण की , ताकि वहाँ ठोकर खाओ और आप सही रास्ते पे आओ। ***************** पूज्या गुरुमाँ मकरसंक्रांती २०१७
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आश्रम तो आज से 20 साल पूवॅ ही एक राजा अपने 50 किलोमीटर में फैले टी गाडॅन में बनाने को तैयार था, लेकिन वह आश्रम तो बनता पर सामूहिकता में नहीं बनता। आश्रम सामूहिकता में निमाॅण हो, यही प्रभु से प्राथॅना है। अगर आश्रम को 1 लाख रू. की आवश्यकता है, तो एक व्यक्ति से 1 लाख रू. स्वीकार करने से अच्छा है 1रू. 1 लाख साधकों से स्वीकार किया जाए, यह समपॅण आश्रम की पवित्र स्थली के निमाॅण के कायॅ में परमात्मा प्रत्येक साधक को अपना योगदान देने की शक्ति प्रदान करे, इसी शुद्ध इच्छा के साथ नमस्कार। आपका बाबा स्वामी - 2005 जुलाई-अगस्त-सितंबर मधुचैतन्य
गुरुपुर्णिमा २०१० के प्रवचन के कुछ अंश
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सामूहिकता में चले जाने के बाद उस बुरे कर्म का प्रभाव आपके ऊपर नहीं होता । सामूहिकता में ध्यान करेंगे तब आपकी आत्मा ही आपका गुरु बन जाएगी । कुछ नकारात्मक शक्तियाँ आपको माध्यम बना सकती है । इसलिए सामूहिकता छोड़करके बिलकुल ध्यान मत करो । किसी भी कीमत पे कलेक्टिविटि को मत छोड़ो । गुरुपुर्णिमा के दिन शिष्य की चैतन्य ग्रहण करने की क्षमता खूब बढ़ जाती है । नियमित धान करो , ताकि प्रत्येक दिन आपके जीवन में गुरुपूर्णिमा सिद्ध होगा । शरीर के गुलाम मत बनो ..। आत्मा का शरीर के ऊपर नियंत्रण रखना ही समर्पण ध्यान का उद्देश है । परमपूज्य गुरुदेव
श्री क्षेत्र
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दूसरा , जिस प्रकार यहाँ आदिवासियों ने अपने-अपने खेत की सीमाएँ निश्चित की हैं, वैसे-वैसे ही उन ऋषी-मुनियों ने भी तपस्या की साधना से अपना-अपना क्षेत्र निश्चित किया है। उस क्षेत्र के बीचों-बीच ही वे सदैव रहते हैं। वहाँ कोई काँटे के झाड़ों की सीमा नहीं है , वह उनकी साधना से निर्मित आभामण्डल की सीमा है। वह सीमा दिखती नहीं है, लेकिन उसका अस्तित्व सभी जगह है। इस सीमा में हम काँटे की झाडी़ को हटाकर भी धुस सकते हैं , लेकिन उस सीमा में हम उनकी आज्ञा के बिना धुस ही नहीं सकते। उनकी अगर इच्छा हो तो धुस सकते हैं , अन्यथा नहीं। और वह उन्होंने इसीलिए तैयार की है कि वे नहीं चाहते कि कोई भी मनुष्य उनके पास भी आए और उनकी साधना में विध्न डाले। दूसरा , साधना सदैव शरीर में रहकर ही नहीं की जाती है। कई बार साधना करते समय वे शरीर को भी छोड़ देते हैं। और ऐसे समय उस शरीर की सुरक्षा का प्रश्न होता है। यह श्री क्षेत्र बनाकर वे अपने शरीर को संरक्षित रख पाते हैं। यह जो उनके आभामण्डल का क्षेत्र होता है , उस क्षेत्र को ही श्री क्षेत्र कहते हैं। यह भी मिलों तक होती है। ये सभी आभामण्डल के क्षेत्र श्री क्षेत्र ही कहलाते
जल-तत्व
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" आप.., पानी की सामूहिकता के जब कभी, प्रथम दर्शन करते हैं, दर्शन का पहला प्रभाव -- अच्छा लगता है ..।यह अच्छा लगना, दर्शन मात्र से होता है, पानी की सामूहिकता के सानिध्य की दूसरी पादान है--- अगर आप वहां पर 20 मिनट खड़े रहे, या बैठे , तो उसका प्रभाव आपके मन पर भी होना प्रारंभ हो जाएगा., मन के दूषित विचारों को बाहर निकलने के लिए 20 मिनट की अवधि , आवश्यक होती है। क्योंकि 20 मिनट के बाद ही, यह प्रक्रिया होनी प्रारंभ होती है । शुद्धिकरण की प्रक्रिया से यह महसूस होता है-- जो अनावश्यक विचार हम कर रहे थे, वे कम हो गए, मन को प्रसन्न लगने लग गया, भूतकाल के विचार, जो बार-बार आ रहे थे , वो कम हो गए, मन जो अस्थिर हो, भटक रहा था, वह भी कम भटक रहा है। एक प्रकार की शांति का अनुभव करोगे । और अगर आप जल-तत्व के उस स्वरूप के पास बैठोगे तो, अनुभव होगा की, चित्त-शुद्धि की प्रक्रिया , पूर्ण हो गई है। अब चित्त पवित्र और शुद्ध होकर.., प्रकृति के साथ, समरस हो रहा है, और इस कारण चैतन्य ग्रहण करने लग गया है.., और इस चैतन्य का प्रभाव, मेरी शरीर के रोम-रोम पर पड़ रहा है। आपके भीतर से ही.., प्रकृति बह
गहन ध्यानयोग निर्गुण-निराकार है तो आप आपकी मूर्ति रूप में , सगुणरूप में क्यों स्थापित करना चाहते हैं?
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*साधक:* गहन ध्यानयोग निर्गुण-निराकार है तो आप आपकी मूर्ति रूप में , सगुणरूप में क्यों स्थापित करना चाहते हैं? *साधक:* मैंने अभी आपको बताया कि हमें सेल्फिश(स्वार्थी) नहीं होना है। हमको मिल गया , समाप्त हो गया-ऐसा नहीं। अगर ऐसा ही हमारे गुरु सोचते तो हम तक यह चीज पहुँचती क्या? नहीं पहुँचती। तो यह आपके लिए हैं ही नहीं। यह उनके लिए है जो अपने जीवनकाल के बाद में आने वाले हैं और तब हम कोई नहीं रहेंगे। तब वह अनुभूती उन तक पहुँचने का यह माध्यम है, वह उन तक पहुँचाने का तरीका है। उस तरीके में उसको स्थापित किया हुआ है। तो पहली बार किसी जिवंत गुरु ने अपनी जीवंत शक्तियाँ अपने जीवंत शरीर में स्थापित कीं। ऐसा आज तक कभी नहीं हुआ। इसलिए हुआ है कि इसका उद्देश्य है कि वह अगली पीढियो तक पहुँचाना है , आगे की पीढीयों तक जाना है। आज की पीढ़ी को उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। *मधुचैतन्य अप्रैल २००७* *॥आत्म देवो भव:॥*
देना ही मोक्ष है , पाना मृत्यु है
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जितनी आपके भीतर से देने की प्रक्रिया होगी , सामनेवाला ग्रहण करे , नहीं ग्रहण करे , उससे कुछ लेना देना नहीं है। जितनी आपके अंदर से देने की प्रक्रिया होगी , उतनी आपकी शुद्धि होती चली जाएगी। आपका हंडा बडा होते जाएगा। आप विकसित होते जाओगे। और जितना आपके हाथ से देने का कार्य होगा , उतना ही आप मोक्ष के करीब , और करीब , और करीब जाते चले जाओगे। क्योंकि देना ही मोक्ष है , पाना मृत्यु है। मधुचैतन्य अक्टूबर २००७
ह्नदय चक्र
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मैंने शांति के साथ कलश पूजन किया और बाद में दीपक जलाया और फिर उसे नमस्कार करके कार्यक्रम प्रारंभ किया। मैंने कहा , आज का चक्र ह्नदय चक्र में एक भाग ही ह्नदय है। सामान्यत : जब भी यह चक्र पकड़ता है टी वह अपने साथ अन्य चक्रों को भी प्रभाविक करता है। जब हम भूतकाल में ही चित्त रखते हैं और सदैव भूतकाल के ही विचार करते हैं , तो ऐसा करने से यह चक्र पकड़ता है। सदैव नकारात्मक विचार करना इस कि खराबी के कारण होता है। मैं चाहता हूँ , प्रत्येक नाड़ी के साथ अपने-आपको जोड़कर देखों तो आपको स्वयं ही पता चल जाएगा कि आपके कौन से चक्र खराब हैं और कौन सी नाड़ियाँ खराब हैं। इस चक्र की खराबी से मनुष्य में भय निर्माण हो जाता है। मेरी दुर्धटना भी हो सकती है , यह एक दुर्धटना का भय है , जो ह्नदय चक्र पकड़ने से आता है। जीवन में सबसे बड़ा भय होता है मूत्यु का। आज मूत्यु के भय का ही बीमा कंपनी अपने व्यापार के लिए उपयोग कर रही है। वो जो कर रही हैं, वह भविष्य के दृष्टि से अच्छा है , लेकिन सारे बीमा कंपनियों का व्यापार ही मनुष्य के मूत्यु के भय के ऊपर ही चल रहा है। मूत्यु का भय , धर नष्ट होने का भय , कार की दुर्घटना का भय
अपेक्षा
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इसलिए कहता हूँ की दिन के केवल ३० मिनट बिना अपेक्षा के नियमित ध्यान करो , जीवन की सभी समस्याएँ हल हो जाएँगी । मेरा ध्यान लगना चाहिए , यह भी अपेक्षा मत रखो । यह तभी संभव है जब आप आपके जीवन के ३० मिनट प्रतिदिन नियमित रूप से मुझे दान करें । दान जो किया जाता है , वह वापस कभी लिया नहीं जाता । यानी ३० मिनट दान करने के बाद आप उस ३० मिनट में रोज कुछ भी नहीं कर पाएँगे । उस ३० मिनट में आपको आपके जीवन की समस्याओं पर विचार करने का भी हक नहीं है क्योंकि वह ३० मिनट मेरे है और मैं विचार नहीं करता हूँ । अगर ऐसा आप प्रामाणिकता और भाव से करें ध्यान स्वयं ही लग जाएगा । पूज्य गुरुदेव के आशीर्वचन
आदर्श साधक
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११. यह कम बात करता है। बात करके अपनी प्राप्त ऊर्जा को गँवाता नहीं है। १२. यह साधक सामुहिकता में सदैव नियमित ध्यान करता है। १३। यह गुरुकार्य को अपना सौभाग्य समझता है क्योंकि वह जानता है, "कार्य तो कोई ना कोई कर ही देगा। मुझे करने को मिला, यह मेरा सौभाग्य है।" १४. यह जो भी गुरुकार्य करता है, बडी एकाग्रता से करता है। अपनी ओर से उस कार्य को सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करता है। १५. यह गुरुकार्य को 'आत्मा के द्वारा आत्मा के लिए किया गया कार्य' समझकर करता है। १६. यह पानी जैसा होता है। किसी भी प्रकार के रंग को अपना लेता है सबसे एक-सा व्यवहार करता है। १७. इसके सामने साक्षात् सदगुरु भी हों, तो भी इसका चित्त सदगुरु के शरीर पर नहीं, उनके शरीर से निकलने वाले 'चैतन्य' पर रहता है। १८. क्योंकि यह 'गुरु साक्षात् परब्रह्म' मानता है। १९. यह साधक सुबह जल्दी उठता है और रात जल्दी सोता है। २०. सुबह जल्दी उठकर नियमित ध्यान करता है। आध्यात्मिक सत्य, पृष्ठ. ११६-११७.
शून्य तक पहुंचने के मार्ग
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पहला मार्ग है -- ध्यान ।..ध्यान में दोनों नाड़ियों पे नियंत्रण करना पड़ेगा । दूसरा मार्ग है --गुरुकार्य । अगर आप अपने आपको गूरूकार्य में व्यस्त कर लोगे तो आपको आपका भूतकाल याद नहीं आएगा । चंद्र नाड़ी पर स्वयं ही नियंत्रण हो जाएगा । गूरूकार्य याने वह कार्य जो गुरु साक्षात अपने माध्यम से कराता है । ध्यान करने से गूरूकार्य करना आसान है । केवल आपको आपके अहंकार पर नियंत्रण करना होगा । गूरूकार्य ध्यान छोड़ करके नहीं करना चाहिए । गूरूकार्य सदैव घटित होता है । गूरूकार्य तभी घटित होगा जब आप नीखालस होंगे , पवित्र होंगे , शुद्ध होंगे ;आप खाली पाइप होंगे । प्रत्येक क्षण में आपके साथ रहता हूँ ;आप मेरे साथ कभी कभी रहते है । शुद्ध भाव से गूरूकार्य करोगे न , बराबर उनका चैतन्य आपको सतत मिलते रहेगा । गुरुपुर्णिमा २०१० परमपूज्य गुरुमाऊली
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मेरी इच्छा है कि इस शिविर के आखिरी दिन तू अवश्य मेरे साथ चल। मैंने तेरा वहाँ उल्लेख किया है, तो स्वामीजी की भी तुमसे मिलने की इच्छा है और उन्होंने वह दो बार बोल कर भी दिखाई है। मेरे ही साथ चलना और मेरे ही साथ वापस आ जाना। कितनी अच्छी शिविर की व्यवस्था मेरे जीवन में प्रथम बार हुई है , वह अवश्य तू देख। जिस प्रकार कोई बच्चा कोई कालकूती का निर्माण करता है , तो उसकी इच्छा रहती है कि वह अपनी माँ को वह अवश्य बताए। अब तो मेरी माँ नहीं है , लेकिन तू ही मेरी आध्यात्मिक जगत् की माँ है। तेरे ही लालन-पालन में मेरा आध्यात्मिक बीज वूक्ष बन पाया है। पत्नी बोली , तुम न , किसी की भी तारीफ करते हो , उसको चने के झाड़ पर चढ़ा देते हो। मैंने कहा , नहीं , यह मेरे भीतर की भावना है। हि. का. स.भाग - ६ २१८
पुत्र के जन्म के बिना मोक्ष प्राप्त नहीं होता
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पहले के लोग कहते थे , "पुत्र के जन्म के बिना मोक्ष प्राप्त नहीं होता" तो सामान्य मनुष्य ने उसका अर्थ लगाया , "एक पुत्र को अपनी पत्नी से जन्म देना।" वास्तव में जब मोक्ष आत्मा को होता है , तो पुत्र भी आत्मा को ही होगा यानि वे लोग शरीररुपी पुत्र की बात नहीं कर रहे हैं , "आपके द्वारा एक और आत्मा का जन्म होने पर आपको मोक्ष मिलेगा।" यानि *आपने जो ईश्वरीय अनुभूती प्राप्त की है , उसे एक और मनुष्य को देना ही एक और आत्मा को जन्म देना है।* सब बातों के बडे गहरे अर्थ होते हैं। मनुष्य सदैव अपनी सुविधानुसार ही उसका अर्थ लगाता है। ------ *बाबा स्वामी* (पूज्य गुरुदेव के आशीर्वचन) *॥आत्म देवो भव॥*
आज विश्वभर में माता-पिता अपने बच्चों के लिए चिंतित
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आज विश्वभर में माता-पिता अपने बच्चों के लिए चिंतित हैं कि बिगडते हुए माहौल का असर उनके बच्चों पर न पडे। वे अपने बच्चों को बिगडते हुए माहौल से बचाना चाहते हैं पर बचाने का मार्ग उनके पास नहीं है। किसी धर्म में अनुभूति नहीं है। सारे धर्म केवल पुस्तकों में, उपदेशों में रह गए हैं। युवा पीढ़ी उपदेश नहीं चाहती, अनुभूति चाहती है और वह अनुभूति "समर्पण ध्यान" में है। इसमें कोई उपदेश नहीं है- यह करो या यह न करो। इसमें केवल यही कहा गया है- ध्यान करो, सामूहिकता में करो। बस और कुछ नहीं। क्या अच्छा है और क्या बुरा है, उसका ज्ञान आपको आपके भीतर से ही हो जाएगा। हि.स.यो.४/४४७
आत्मचिंतन
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आत्मचिंतन आत्मा को शुद्ध करता है , आत्मा को पवित्र करता है , आत्मा के करीब लेके जाता है । इसलिए सदैव आत्मचिंतन करना ही चाहिए । आत्मचिंतन करते -करते मैने ये जाना की मै आप के बहोत करीब रहता हूँ , बहुत पास रहता हूँ , आप भले ही पास मत रहो , मै आप के सब के करीब रहता हूँ , एक -एक के करीब रहता हूँ । तुम्हारे अस्तित्व के साथ मेरा खूब पुराना संबंध है । आप देखो , आप किसी भी समय मुझे याद करो चैतन्य के रूप मे आपको उसकी अनुभूति अवश्य होती है । यानी ? आप मेरे साथ नही रहते , लेकिन मै आपके साथ सदैव रहता हूँ , प्रति क्षण रहता हूँ । आवशकता है उस सानिध्य को जानने की , उस सानिध्य को पहचानने की , उस अस्तित्व को जानने की आवश्यकता है ।...... ****************************** परम पूज्य स्वामीजी महाशीवरात्री २ ४ फरवरी [ २ ० १ ७ ]
मोक्ष
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अपने आपको सभी बातों से मुक्त करना ही " मोक्ष " है और यह कोई भगवान या गुरु नही दे सकता । यह प्रत्तेक को स्वयं ही पाना होगा अगर आपने पाया हो तो अच्छी बात है और अगर नही पाया हो तो आज से ही इसका अभ्यास प्रारंभ कर दो । पता नही कितना जीवन आपका बचा है । आप सभी अपने जीवन मे यह मोक्ष की स्थिति प्राप्त करे यही मेरी शुद्ध इच्छा है । आप सभी को खूब खूब आशीर्वाद ।.... आपका बाबा स्वामी मधूचैतन्य अ .न .दि .[ २ ० १ ३ ]
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समर्पण ध्यान अनुभूती पर आधारित है। ईश्वरीय अनुभूती ईश्वरीय कृपा है, वह बस हो जाती है। और इस प्रकार से गुरुकृपा में जो ईश्वरीय अनुभूती प्राप्त हुई है , वह केवल गुरुकृपा है , वह परमात्मा का प्रसाद है और वह प्रसाद हमें बाँटने के लिए ही दिया है। इसलिए प्राप्त गुरुकृपा के लिए हम उस प्रसाद को बाँटकर 'गुरुदक्षिणा' के रूप में देते है क्योंकि गुरुदक्षिणा दिए बिना साधना कभी सिद्ध नहीं होती। आपको ध्यान का प्रचार प्रसार कर कम से कम एक व्यक्ति को ध्यान सिखाना ही अपने गुरु को सच्ची दक्षिणा है। और यह गुरुदक्षिणा देना प्रत्येक साधक का कर्तव्य है। मैं भी इसी कर्तव्य के तहत ही समाज में आया हूँ , अन्यथा हिमालय में ही रहता था। पूज्य गुरुदेव के आशीर्वचन (मधुचैतन्य अप्रैल २००७) ॥आत्म देवो भव:॥
साधक की डायरी से... -श्री मनोज बोल, सिंगापुर
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दिनांक १२ अक्टूबर २०१५ को हम पूज्य स्वामीजी के साथ सिंगापुर के एक भोजनालय मेँ भोजन कर रहे थे। सहसा खाते खाते स्वामीजी को दो बार श्वासरोधन के साथ खाँसी आई। चूंकि मैं स्वामीजी के पास ही बैठा था इसलिए मैंने उठकर तुरंत पानी का एक ग्लास स्वामीजी के समक्ष रखा। स्वामीजी ने अपना सिर हिलाते हुए शांतिपूर्ण भाव से कहा, "नही चाहिए।" गले में कुछ अटकाव होने पर पानी पीना सटीक उपाय होता है ऐसा सोचते हुए मैं उनकी तरफ असमंजस भाव से देखने लगा। मेरे मन की बात पढ़ते हुए स्वामीजी ने कहा, "एक महिला की अभी-अभी प्रसूती हुई है। शिशु तो स्वस्थ है किंतु उसे अन्य कुछ समस्याएं थीं। मैंने उन मसलों को ग्रहण कर लिया इसलिए मुझे खाँसी आयी। बैठ जाओ और अपने भोजन का आनंद लो, अब सब ठिक हो गया है - दोनों, वह शिशु और मेरी खाँसी।" इतना कहकर उन्होंने बड़ी सहजता के साथ अपना भोजन लेना जारी रखा। कितनी महान हस्ती! सिंगापुर में स्थूल रूप से साधकों के साथ बैठकर भोजन ग्रहण करते हुए भी वे चित्त से विश्व में अन्य साधकों के साथ जुड़े रहकर अपना कार्य कर रहे थे। स्वयं को शारिरिक कष्ट होते हुए भी वे अपने प्रिय साधकों
मैं कौन हूँ ?
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श्री गुरुदेवजी ने कहाँ अगर अपने -आपको जानना है , तो अपने -आपसे ही प्रश्न करो की मैं कौन हूँ ? इस प्रकार से तीन बार प्रश्न करो तो जान जाओगे की तुम कौन हो । मैंने भी आँखें बंद की और अपने -आपसे ही प्रश्न किया , "मैं कौन हूँ ? मैं कौन हूँ ? मैं कौन हूँ ?" धीरे -धीरे आँखें कब बंद हो गई , पता भी नहीं चला । हम यह प्रश्न जैसे ही स्वयं से करते है , हमारा चित्त भीतर की ओर चला जाता है । हम दुनियाभर की खोज करते है , पर -अपने -आपको कभी नहीं खोजते है । जो खोज करना आवश्यक है , वह छोड़कर बाहर सब खोजते रहते है । और जैसे ही यह प्रश्न जानने का प्रयास करते है , तो हमारी भीतर की यात्रा प्रारंभ हो जाति है । और जब भीतर की यात्रा प्रारंभ हो जाती है , ' तो हम जान जाते है - "शरीर और "मैं " अलग -अलग है ।" और "मैं " शरीर से अलग हो जाता है और एक आध्यात्मिक क्रांति घटित होती है । . . . . . . ही .का .स .योग १ /७२
ॐ श्री शिवक्रुपानँद स्वामी नमो नमः
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हिमालय के सदगुरुओं ने यह मंत्र सर्वसामान्य मनुष्य के लिए बनाया है । यह सीधा सहस्त्रार चक्र पर प्रभाव डालता है क्योंकि इस मंत्र के साथ उन्होने एक संकल्प भी किया है की इस मंत्र से मनुष्य सहस्त्रार तक पहुँचे और उससे मनुष्य के शारीरिक , मानसिक और आध्यात्मिक संतुलन बनकर मनुष्य की आध्यात्मिक प्रगती हो । **************** परम पूज्य गुरुदेव ही .का .स .योग . भाग ५ / ९८
विचार
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" जो मनुष्य सकारात्मक विचार कर सकता है, वही मनुष्य नकारात्मक विचार भी कर सकता है। दोनों ही विचार मनुष्य की शक्ति को खर्च करते हैं। इन दोनों से मुक्ति निर्विचारिता की स्थिति है और यह स्थिति ध्यान में ही संभव है और ध्यान आत्मज्ञान से ही संभव है। यानि विश्व कल्याण का मार्ग आत्मज्ञान से ही संभव है। " - बाबा स्वामी
पूज्य स्वामीजी के साथ हुई प्रश्नोत्तरी
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Q - *स्वामीजी, में ध्यान के समय बहुत हिलता हूं । कृपया करके मुझे मार्गदर्शन करें*। जवाब :- *जब शक्तियों का प्रवाह बह रहा हो और उसमें बीच मे रुकावट आ जाये, तो वहां तीव्रता बढ़ जाती है । उसे उपर जाने का रास्ता नही मिलता है। समजो अगर आपका ह्रदय चक्र दूषित हो, तब ध्यान के दौरान शक्ति का प्रवाह नीचे से ऊपर की और उठ रहा हो वह ह्रदय चक्र पर आकर अटक जाता है और उसकी तीव्रता के कारण आपका सारा बदन हिलने लग जाता है। आपको अगर कोई तनाव हो और उस तनाव के साथ अगर आप ध्यान करने बैठ जाओगे , तब आपकी स्थिति ऐसी हो जायेगी, इसीलिये ध्यान करने के पहले आप अपने आपको हलका करो, बाद में प्रसन्न चित्त से ध्यान में शामिल होंगे, तब यह शिकायत नही रहेगी*। Q - *स्वामीजी, कल मुझे ध्यान के समय सिर में दर्द नही था । पर, ध्यान करने के बाद सिर में दर्द सुरु हो गया । ऐसा क्यों हुआ*? *जवाब* - *ध्यान के बाद या ध्यान के समय कभी भी सिरदर्द हो सकता है, पर यह थोड़े समय के लिये है । कुछ समय के बाद वह नही रहेगा। जैसे कोई नाली में अगर कचरा भरा पड़ा हो, तो जब तक हम उसे साफ नही करेंगे तब तक वह दिखाई देगा । पर एक बार निकल जाने
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[17/05 6:18 pm] Manish: _*जब भी किसी माध्यम का सान्निध्य मिल जाए, तो वह अनुभव करना चाहिए। माध्यम अनुभव करने की चीज़ है, देखने की नहीं। और जब तक हम देखते रहेंगे, तब तक उसका शरीर ही दिखेगा। लेकिन जब हमारी आँखें बंद हो जाएगी, तभी हमारी चित की आँख खुलेगी और चित की आँख सब अनुभूति से देखती है। *_ _* जय बाबा स्वामी*_ 🍁🙏🏻🍁 _*HSY 3 pg 277*_ [17/05 6:18 pm] Manish: _*’ अनुभूति’ ही एक मात्र ज्ञान है जो पुस्तक से कभी प्राप्त नहीं हो सकती है। *_ _* जय बाबा स्वामी*_ 🌼🙏🏻🌼 _*HSY1 pg 340*_ [17/05 6:18 pm] Manish: जब मैं तपस्या करके महीनों के बाद घर आता हूँ , तो हिमालय की की गूठ़ बातें मुझे पत्नी को बताना होती हैं। लेकिन जब तक पत्नी की वह आध्यात्मिक स्थिति नहीं बनती , मेरे भीतर से वह बातें निकलेगी ही नहीं। इसीलिए मैं धर आकर प्रथम रसोई सँभाल लेता हूँ। हिमालय के गुरु का ज्ञान खूब उच्च कोटि का है। वह सब बताने के लिए और वह सब सुनने के लिए भी एक आध्यात्मिक स्तर की आवश्यकता होती है। उसके बिना उनकी बातें भी नहीं की जा सकती हैं। यानी यह समझ लो कि पति या पत्नी अकेले कभी भी मोक्ष की स्थिति प्राप
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Pooja: 🙏॥ प्रार्थना ॥ 🙏 जब भी कुछ भी , कोई भी बात , कोई भी व्यक्ति के कारण आपको लगे की आप असंतुलित हो रहे है तो कुछ भी नही करना है , आपको उसमें से चित्त निकालने के लिए केवल एक प्रार्थना करनी है । एक बहुत अच्छी -सी सकारात्मक प्रार्थना - "हे गुरुदेव , इस व्यक्ति को सदबुद्धि दो , उसको अच्छा व्यवहार दो , व्यवहार अच्छा करना सिखाओ और मेरा चित्त जो उसमेँ गया है , मेरे चित्त में जो विचार बार -बार उसीके आ रहे है , वे विचार आप ही दूर कर सकते है । आप दूर कर दीजिए । " बस इतनी प्रार्थना करो । वंदनीय पूज्या गुरुमाँ गुरुपुर्नीमा - २०१३ 🌸
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सब मनुष्यों के प्रति प्रेम और मित्रता का भाव निर्माण हो जाता है । यह एक अच्छी आध्यात्मिक स्थिति का द्योतक है । मेरे जीवन में मैं एक सामान्य से मनुष्य में परमात्मा के दर्शन कर पाया और इसलिए परमात्मा के करीब जाने का अवसर मिला , परमात्मा की अनुभूति पाने का अवसर मिला । और इसी कारण "मैं " का अहंकार समाप्त करने में मदद मिली और वीश्वचेतना का माध्यम बनने का अवसर मिला और मुझ जैसे सामान्य आदमी से विश्वशांति का इतना बड़ा असामान्य कार्य विश्वस्तर पर हो सका । बस यही एकमात्र अंतर मेरे में और साधकों में मुझे लगता है । मुझे सामान्य मनुष्य में परमात्मा मिला , उन्हें अभी भी नहीं मिला है । इसलिए उन्हें भी सामान्य मनुष्य में परमात्मा मिले और वे भी मेरी अनुभूति जैसी अनुभूति करें की परमात्मा सर्वत्र है , प्रत्तेक मनुष्यमात्र में है , यह परमात्मा से शुद्ध इच्छा है । . . . 🔱 आध्यात्मिक सत्य 🔱 परमात्मा सर्वत्र है . . . परमपूज्य गुरुदेव .. 🕉
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Rita Chauhan: 🌹जय बाबा स्वामी 🌹 अमरेली शिबीर में पू. स्वामीजी ने कहा की मैने गुरु शक्तियों से शिकायत की, शिवबाबा ने जो अनुभूति मुजे कराइ थी उसी मुल रुप मे मैने अपने साधको को अनुभूति कराई है तो मेरी जो आध्यात्मिक प्रगति हुई वैसी साधको की क्यों नही होती 🍁 🍁🍁🍁🍁🍁🍁 गुरु शक्तियों ने बताया कि साधक बहुत अच्छे है साधना भी करते है लेकिन ज्यादातर साधक तीन चक्र में से पार नहीं हो पाते, ये उनके अपने नीजी प्रोबलेम है इसमें गुरु कुछ नहीं कर सकता। 🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁 ये तीन चक्र कौन से है और उसके पार कैसे जाये इसके बारे में स्वामीजी ने विस्तार से बताया 🌞 नाभिचक्र :- ये चक्र पति-पत्नि के आपसी संबंध पे आधारित है, इसलिए पति-पत्नियों के आपसी संबंध जितना मधुर होगे इतना जल्द इस चक्र से पार हो सकेंगे ❤ ह्रदय चक्र :- अपने मां-बाप के साथ कैसा संबंध है, मतलब हमारे माता-पिता हमसे कितना खुश है इन पर ये चक्र आधारित है। ☸ विशुद्धी चक्र :- अपने भाई-बहन के साथ कैसा संबंध है उस पर ये चक्र आधारित है, अपने भाई या बहन से आपके संबंध अच्छे नहीं है तो आपही पहल करे संबंध मधुर बनाने की क्योंकि आपको जरूरत ह
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*मनुष्य का मोक्ष प्राप्ति का यह एक मात्र मार्ग है- पुस्तक के सद्गुरू से प्रेरणा लेकर सचमुच के सद्गुरू को जीवंत रूप में खोजना और जीवंत सद्गुरू को उनके दोषोंसहित स्वीकार करना और उनके प्रति सम्पूर्ण समर्पित होना ताकि उनके दोष न दिखकर परमात्मा की अनुभूति हो और उस अनुभूति के सान्निध्य में ही रहना मोक्ष की स्थिति है। *_ _* जय बाबा स्वामी*_ _*HSY 1 pg 335*_ *परमात्मा कभी भी किसी का मार्ग बंद नहीं करता है, रास्ता बदलता है। सदैव दूसरा, नया रास्ता बनाने के लिए कोई रास्ता बमद किया जाता है। *_ _* जय बाबा स्वामी*_ _*HSY 3 pg 268*_ जय बाबा स्वामी और ध्यान में यह धीमी प्रगति ही,स्थाई प्रगति होगी, धीमी प्रगति स्थायित्व लाएगी। एकदम से प्राप्त किये हुए यश (सफलता) को, संभाल कर रखना कठिन होता है। यह तो शरीर के नियम के अनुसार है। आप केवल उतना ही खाओ, जितना आप पचा सको, यानी खाने से भी अधिक महत्वपूर्ण पचाना है। यह प्रकृति का नियम है और यह ध्यान की पद्धति भी, प्रकृति के साथ जुड़ी हुई है। इसीलिए इस पर भी यही नियम लागू होता है। ध्यान में प्रगति धीमी- धीमी ही होनी चाहिए । अन्यथा एक बार ऊपर जाकर,
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* मैं एक पवित्र आत्मा हुं * मैं एक पवित्र आत्मा हुं यह *कहना* और मैं एक पवित्र आत्मा हुं यह *मानना* इन दोनों में ही _भाव_ का अंतर होता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में सारी प्रगति भाव पर निर्भर होती है। पिछले १५ साल में बुद्धि का ईतना *विकास* हुआ है। कि भाव पक्ष समाज का *कमजोर* हो रहाँ है। और यह एक तरफ़ा *विकास* एक प्रकार का *असंतुलन* निर्माण कर रहा है। जो भविष्य में समाज के लिये ही *घातक* सिद्ध होगा। समाज मे रहकर संतुलित बने रहने का एक ही मार्ग है। *ध्यानयोग* यहीं मनुष्य को संतुलित कर सकता है। और अच्छी आत्माओं से आपको जोड़ सकता है। बाबा स्वामी सद्गुरु के ह्रदय से(3)