jadeja:
गुरु भी गंगा नदी के समान ही होते हैं ; उनसे जुड़ने वाले लोग अच्छे भी होते हैं और बुरे भी। अब यह अनुभव हमारे श्री मठाधीशजी को आया ही होगा। लेकिन हमें अच्छे लोगों की ही संगत करनी चाहिए। मठ बुरे लोगों को आने से नहीं रोक सकता है। तो हम जब गंगा नदी के पवित्र धात पर जाकर स्नान करते हैं तो हमारी आत्मा प्रसन्न होती है , क्यों ? क्योंकि परमात्मा पानी के कणों के रूप में वहाँ विधमान है और लाखों , करोडों पानी के कणों की वहाँ सामुहिकता। है और इसी कारण हमें उस परमात्मा का अनुभव हुआ। ठीक इसी प्रकार हम कभी समुद्र के बीच ( तट ) पर जाते हैं और समुद्र स्नान करते हैं तो भी हमें प्रसन्नता लगती है। क्योंकि यहाँ भी समुद्र के रूप में परमात्मा पानी के कणों में विधमान होता है। हम इतने जड़ हो गए हैं कि जब तक परमात्मा सामुहिकता में न हो तो हमें वह अनुभव ही नहीं होता है। यही की यही स्थिति किसी समाधिस्थ गुरु के समाधि के पास अनुभव होती है। उस समाधि में वह शरीर रखा गया है , जो अपने जीवनकाल में लेखों आत्माओं के साथ जुड़ा हुआ था। शरीर तो नाशवान है। शरीर को समाधिस्थ करने के कुछ समय के बाद , मांस और त्वचा आदि वी मिट्टी में गल जाता है। लेकिन समाधि में उस शरीर की हडि्डयाँ सालों तक वैसी-की-वैसी विधमान होती हैं। समाधिस्थ गुरु के शरीर की हडि्डयाँ के माध्यम से सालों तक सामुहिकता की शक्ति सदैव ही बहते ही रहती है।
भाग - ६ - २११/२१२

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