आत्मसमर्पण


    " *ऐसा* ही कुछ.., *गुरु* के साथ भी होता है, *वह* तो *भक्तों के भाव से प्रसन्न रहता है* । उसके *शिष्य* , जो *पसंद* करते हैं.., वही वे *अपने गुरु को प्रदान* करते हैं। उस *'गुरु* ' की, *अपनी कुछ इच्छा* ही नहीं होती है..,। *यह तो शिष्य* की इच्छाएं होती है, जिन्हें *पूर्ण करना* , उनका *स्वभाव* है। वे तो *वही स्वीकारते* हैं, जो *शिष्य* देता है..। और *शिष्य वही देगा,* जो *उसके पास है* । अगर- *गुरु जंगल* में है, तो जंगल के *सर्वश्रेष्ठ फल* उनके पास होंगे.., और *गुरु- समाज* में है, तो *समाज की सब-सुख सुविधाएं* , उन्हें प्राप्त होंगी-- *ऐसा होते हुए* भी, ' *गुरु' न तो* जंगल की *सर्वश्रेष्ठ फलों मैं 'रमते'* हैं, और ना ही.. *समाज द्वारा* दी गई *सुख-सुविधाओं में* । *वे तो,* *अपनी ही मस्ती* में *मस्त* रहते हैं। *इसीलिए गुरु कहलाते हैं..।* *गुरु को शिष्य* , कुछ भी *दे नहीं* सकता है। *नदी समुद्र को* क्या दे सकती है? *हां..!* *नदी समुद्र में* *समर्पित* हो सकती है- ठीक इसी *प्रकार* , *गुरु भी शिष्य का* *आत्मसमर्पण चाहते हैं।* *ताकि वे* *शिष्य की आत्मा को* , आगे का *मार्ग* दिखा सकें.., *और शिष्य है* कि, *अपने आपको छोड़कर..* , *बाकी सब कुछ* ही *समर्पित* करता रहता है। और *गुरु-*
उसके *आत्मसमर्पण* का ही *इंतजार* करते रहते हैं। *शिष्य..-* जो *गुरु को देता है,* वह *भौतिक स्वरूप* में होती है, *वह भेंट देखी* जा सकती हैं, पर *गुरु जो देते हैं.* ., वह *भौतिक स्वरूप में नहीं* होती है। *वह ना देखा जा सकता है,- और ना ही दिखाया जा सकता है। क्योंकि वह सूक्ष्म- रूप से होता है, वह केवल, अनुभव किया जा सकता है"।* ( *प.पू.बाबा स्वामी जी* )

हिकासयो.4, पे.186

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