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🌹61. जय बाबास्वामी.🌹

"आत्मसाक्षात्कार...२.

११.  पहले मनुष्य-जन्म की इच्छा तीव्र होने पर मनुष्य-जन्म प्राप्त होता है क्योंकि इसी योनी में आत्मउत्क्रांति संभव है।

१२.  मनुष्य का जन्म दरिद्री, गरीब, मध्यमवर्गीय, अमीर ऐसे भौतिक क्रांति में से गुजरता है। जीवन में अमीर होने के बाद भी सुखी नहीं होता तो मोहभंग होता है और फिर शरीर-सुख में से आत्मसुख की और प्रेरित होता है।

१३.  शरीर के सुखों से क्षणभर का सुख मिल सकता है, शाश्वत सुख नहीं। जब शरीर को इसका अनुभव होता है, तभी वह 'आत्मसुख' की इच्छा करता है। आत्मसुख की तीव्र इच्छा उसे आत्मसुख की ओर लेकर जाती है।

१४.  मनुष्य-जन्म आत्मा का आखिरी जन्म है क्योंकि आत्मा बार-बार इसी मनुष्य-योनी में ही जनम लेती है।

१५.  क्योंकि, मनुष्य-योनि के बाद कोई योनि ही नहीं है। मनुष्य-योनि आखिरी योनि है।

१६.  मनुष्य को बार-बार इसी योनि में जन्म लेना पडता है और प्रत्येक जन्म में अपनी उत्क्रांति की इच्छा करनी पडती है। अंत में मनुष्य-योनि से भी मनुष्य की उत्क्रांति हो जाती है।

१७.  यह आत्मा की उत्क्रांति की प्रक्रिया भी प्राकृतिक चक्र के अंतर्गत होती रहती है। याने मनुष्य के जन्म के समय ही इस जन्म मैं क्या होने वाला है, वह निश्चित हो जाता है।

१८.  सवाल अब यह आता है, जब सब विधिलिखित ही है तो हम प्रयत्न ही क्यों करें ? वास्तव में ऐसा नहीं है। अच्छी सामूहिकता के कारण खराब प्रभाव का असर हमारे ऊपर नहीं पडता है। असर भी बँट जाता है।

१९.  इस मनुष्य-योनि में सामूहिकता का बडा महत्व है। क्योंकि सामूहिकता ही उत्क्रांति की आधारशिला है, ऐसा कहा जा सकता है।

२०.  मनुष्य को यह सामूहिकता का सान्निध्य मिल जाए तो समय के अंतराल को कम किया जा सकता है।और सामूहिकता के प्रभाव के कारण उत्क्रांति संभव है।

आध्यात्मिक सत्य, पृष्ठ. ९९-१००.

🌸🌹|| जय बाबा स्वामी ||🌹🌸

"अब प्रश्न है कि जीवन तो बहुत छोटा है और गुरुकार्य तो बहुत बड़ा है और शरीर तो नाशवान है | तो यह नाशवान शरीर से इतने वर्षों तक कार्य कैसे हो सकता है ? इस शरीर को इतने वर्षों तक रखा जा सकता है, वह 'मूर्तियों'  के 'माध्यम' से | इसी शरीर की मूर्तियों (प्रतिरुप) का निर्माण करो और अपने जीवनकाल में ही अपना जीवन ही संकल्प बनाकर इन मूर्तियों में प्रवाहित करो | अपने चैतन्य को मूर्तियों में प्रवाहित करते समय एक संकल्प करो -  जो 'आत्मसमाधान'  मुझे मेरे जीवन में मिला, वहीं 'आत्मसमाधान' प्रत्येक उस मनुष्य को मिले जो इन मूर्तियों के माध्यम से पाना चाहे | ये मूर्तियाँ 'जीवंत मूर्तियाँ' होंगी | वह मूर्तियों के सान्निध्य में मनुष्य सर्वोत्तम इच्छा 'आत्मसाक्षात्कार' की, वह भी पूर्ण होगी |"

(हिमालय का समर्पण योग, भाग- 4, पेज 304)

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