साधक की डायरी से... -श्री मनोज बोल, सिंगापुर

दिनांक १२ अक्टूबर २०१५ को हम पूज्य स्वामीजी के साथ सिंगापुर के एक भोजनालय मेँ भोजन कर रहे थे। सहसा खाते खाते स्वामीजी को दो बार श्वासरोधन के साथ खाँसी आई। चूंकि मैं स्वामीजी के पास ही बैठा था इसलिए मैंने उठकर तुरंत पानी का एक ग्लास स्वामीजी के समक्ष रखा। स्वामीजी ने अपना सिर हिलाते हुए शांतिपूर्ण भाव से कहा, "नही चाहिए।"
गले में कुछ अटकाव होने पर पानी पीना सटीक उपाय होता है ऐसा सोचते हुए मैं उनकी तरफ असमंजस भाव से देखने लगा। मेरे मन की बात पढ़ते हुए स्वामीजी ने कहा, "एक महिला की अभी-अभी प्रसूती हुई है। शिशु तो स्वस्थ है किंतु उसे अन्य कुछ समस्याएं थीं। मैंने उन मसलों को ग्रहण कर लिया इसलिए मुझे खाँसी आयी। बैठ जाओ और अपने भोजन का आनंद लो, अब सब ठिक हो गया है - दोनों, वह शिशु और मेरी खाँसी।" इतना कहकर उन्होंने बड़ी सहजता के साथ अपना भोजन लेना जारी रखा।
कितनी महान हस्ती! सिंगापुर में स्थूल रूप से साधकों के साथ बैठकर भोजन ग्रहण करते हुए भी वे चित्त से विश्व में अन्य साधकों के साथ जुड़े रहकर अपना कार्य कर रहे थे। स्वयं को शारिरिक कष्ट होते हुए भी वे अपने प्रिय साधकों की सहायता करते हैं! मुझे लगा, यही समय है कि हम अपना आत्मनिरीक्षण करें कि,
-क्या हम उन्हें सचमुच समर्पित हैं?
-क्या हम उनके लिए गुरुकार्य कर रहे हैं?
-क्या हम अपने आपको पवित्र और शुद्ध आत्मा मानते हैं?
क्या हम उनकी बताई हुई आसान पद्धति से नियमित अपेक्षारहित ३० मिनट ध्यान करते हैं?
आइए, आज से हम संकल्प करें कि हम आत्मस्वरूप रहकर उस चैतन्य का कुछ हिस्सा ग्रहण करें जो स्वामीजी हम पर बरसा रहे हैं। हम यह समजने का प्रयास करें कि स्वामीजी हमें निरंतर क्या दे रहे हैं, इस क्षण भी! हम सब उस झरने के निचे खड़े रहें जिससे हमारा स्नान घटित हो जाएगा!

मधुचैतन्य 

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