आभामंडल

११.  इसीलिए मनुष्य पहली बार अपराध करने के लिए विचार करता है - अपराध करुँ या ना करुँ ? लेकिन एक बार कर देने के पश्चात लगातार अपराध करता चला जाता है। इसलिए मनुष्य ने अपने पहले अपराध करने से ही बचना चाहिए, नहीं तै अपराध उसके हाथ से होते चले जाएँगे और लह अपराधी हो जाएगा।
१२.  इस जगत का कोई कानून मनुष्य को अपराध करने से नहीं रोक सकता है। कानून का कार्यक्षेत्र तो अपराध हो जाने के बाद प्रारंभ होता है तो कानून अपराध को कैसे रोक सकता है ? अपराध को रोक सकता है तो वह आत्मा है जो अपराध होने के पूर्व जानता है - यह अपराध है, नहीं करना चाहिए।
१३.  आत्मा अगर सशक्त हुई तो वह शरीर को अपराध करने से रोक सकती है। और समर्पण ध्यान आपकी आत्मा को ही सशक्त करता है। और इसीलिए आपके हाथ से अपराध नहीं हो पाता है। आत्मा का सशक्त होना अत्यंत आवश्यक है। बुद्धि के विकास के साथ-साथ आत्मीयता कम हो रही है। यह बात अच्छी प्रतीत नहीं होती। यह समाज में असंतुलन पैदा करेगी।
१४.  आज के सायन्स के युग में बुद्धि का तेजी के साथ विकास हो रहा है। आज के सायन्स के युग मे रोज नए-नए आविष्कार हो रहे हैं। पहले शरीर की शक्ति का युग था, तो आज बुद्धि की शक्ति का युग है। ना वह युग रहा, न यह युग रहेगा। सायन्स ने नए-नए आविष्कार किए हैं। ये बुद्धि से किए गए, आत्मीयता का अभाव है। अगर ये आविष्कार गलत हाथों में पड गए तो मानव-जाति के लिए घातक सिद्ध हो सकते हैं। बनानेवाले सोच भी नहीं सकते, उनके द्वारा बनाया गया उपकरण विनाशकारी भी सिद्ध हो सकता है। आज का इंटरनेट इसका ताजा उदाहरण है। आज इतने अच्छे साधन का गलत हाथों में पड जाने के कारण गलत इस्तेमाल हो रहा है। गलत हाथों मैं न पडे, इसकी कोई व्यवस्था नहीं है। यह व्यवस्था भी साथ-साथ करनी आवश्यक है।
१५.  इसके लिए आवश्यक है - गलत हाथ ही न रहें। गलत व्यक्ति नहीं होंगे तो गलत हाथ नहीं होंगे और फिर गलत हाथों में पड़ने का खतरा भी नहीं होगा।
१६.  इसलिए आवश्यक है, बुद्धि के विकास के साथ-साथ आत्मीय विकास भी होना आवश्यक है। आत्मिक विकास का महत्व आज जितना है, उतना पहले कभी आवश्यक नहीं था क्योंकि बुद्धि का विकास इतना नहीं था। अन्यथा यह बुद्धि का एकतरफा विकास ही मानव-नाश का कारण सिद्ध होगा। आज ही संभलने की आवश्यकता है, कल तो देर हो जाएगी।
१७.  हमारा बुद्धि का विकास राईट साईड ( सूर्य नाडी) पर निर्भर है, तो आत्मीय विकास लेफ्ट साईड (चंद्र नाडी) पर निर्भर है। और संतुलन करने के लिए हमें सहस्त्रार पर चित्त केंद्रित करने की आवश्यकता है।
१८.  सहस्त्रार चक्र पर स्थिरता सामूहिकता में ही प्राप्त की जा सकती है। और सामूहिकता के लिए 'गुरुशक्तियों को समर्पण' आसान मार्ग है।
१९.  प्रत्येक मनुष्य का जिस प्रकार से स्थूल शरीर होता है, ठीक उसी प्रकार से उसका सूक्ष्म शरीर  (विचारों का शरीर) होता है। आप किस प्रकार से सोचते हैं, ठीक उसी प्रकार से इसका निर्माण होता है।
२०.  इसके अलग-अलग रंग होते हैं। आपके विचारों के अनुसार इसके रंग तैयार होते हैं। यह प्रत्येक व्यक्ति का निजी होता है।

आध्यात्मिक सत्य. १२४-१२६.

Comments

Popular posts from this blog

Subtle Body (Sukshma Sharir) of Sadguru Shree Shivkrupanand Swami

सहस्त्रार पर कुण्डलिनी