श्री क्षेत्र

दूसरा , जिस प्रकार यहाँ आदिवासियों ने अपने-अपने खेत की सीमाएँ निश्चित की हैं, वैसे-वैसे ही उन ऋषी-मुनियों ने भी तपस्या की साधना से अपना-अपना क्षेत्र निश्चित किया है। उस क्षेत्र के बीचों-बीच ही वे सदैव रहते हैं। वहाँ कोई काँटे के झाड़ों की सीमा नहीं है , वह उनकी साधना से निर्मित आभामण्डल की सीमा है। वह सीमा दिखती नहीं है, लेकिन उसका अस्तित्व सभी जगह है। इस सीमा में हम काँटे की झाडी़ को हटाकर भी धुस सकते हैं , लेकिन उस सीमा में हम उनकी आज्ञा के बिना धुस ही नहीं सकते। उनकी अगर इच्छा हो तो धुस सकते हैं , अन्यथा नहीं। और वह उन्होंने इसीलिए तैयार की है कि वे नहीं चाहते कि कोई भी मनुष्य उनके पास भी आए और उनकी साधना में विध्न डाले। दूसरा , साधना सदैव शरीर में रहकर ही नहीं की जाती है। कई बार साधना करते समय वे शरीर को भी छोड़ देते हैं। और ऐसे समय उस शरीर की सुरक्षा का प्रश्न होता है। यह श्री क्षेत्र बनाकर वे अपने शरीर को संरक्षित रख पाते हैं। यह जो उनके आभामण्डल का क्षेत्र होता है , उस क्षेत्र को ही श्री क्षेत्र कहते हैं। यह भी मिलों तक होती है। ये सभी आभामण्डल के क्षेत्र श्री क्षेत्र ही कहलाते हैं। यह समूचे श्री क्षेत्रों में कभी कोई विचार ही नहीं होते है , तो भय भी एक विचार है। अब कुछ लोग मुझे पूछते हैं - आप जब जंगल में अकेले हिमालय में धूमते हो तो भय नहीं लगता क्या ? मेरा उनको उत्तर होता है - श्री क्षेत्र में कभी कोई विचार ही नहीं होता और डर भी एक विचार है , इसीलिए वहाँ भी ही नहीं लगता है।

हि. का.स. यो.भाग  6 -पे.220/221



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