समर्पण ध्यान अनुभूती पर आधारित है। ईश्वरीय अनुभूती ईश्वरीय कृपा है, वह बस हो जाती है। और इस प्रकार से गुरुकृपा में जो ईश्वरीय अनुभूती प्राप्त हुई है , वह केवल गुरुकृपा है , वह परमात्मा का प्रसाद है और वह प्रसाद हमें बाँटने के लिए ही दिया है। इसलिए प्राप्त गुरुकृपा के लिए हम उस प्रसाद को बाँटकर 'गुरुदक्षिणा' के रूप में देते है क्योंकि गुरुदक्षिणा दिए बिना साधना कभी सिद्ध नहीं होती।

आपको ध्यान का प्रचार प्रसार कर कम से कम एक व्यक्ति को ध्यान सिखाना ही अपने गुरु को सच्ची दक्षिणा है। और यह गुरुदक्षिणा देना प्रत्येक साधक का कर्तव्य है। मैं भी इसी कर्तव्य के तहत ही समाज में आया हूँ , अन्यथा हिमालय में ही रहता था।

पूज्य गुरुदेव के आशीर्वचन
(मधुचैतन्य अप्रैल २००७)

॥आत्म देवो भव:॥

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