"आत्मसाक्षात्कार...४.
३१. हमें क्या मिला है, उसका एहसास ही नहीं है तो आगे की प्रगति का सवाल ही नहीं। एक जन्म में सब ग्रहण करना कठिन है।
३२. हमें क्या मिला है, सबसे पहले उसका एहसास होना अत्यंत आवश्यक है। उसके बाद ही चित्त उस ओर जाएगा और जब उस ओर जाएगा तो फिर वह भीतर और भीतर उतरते जाएगा।
३३. हमारा चित्त इतना बाहर है कि क्या मिला है, उसका एहसास ही नहीं होता। जो मिला है उसका अनुभव शारीरिक स्तर पर नहीं किया जा सकता क्योंकि ऐसी अनुभूति पहले कभी शरीर को हुई ही नहीं है। शरीर के स्तर पर, बुद्धि के स्तर इस अनुभूति को समझा नहीं जा सकता, इसे सिर्फ आत्मिक स्तर पर अनुभव किया जा सकता है।
३४. जब हम अपने प्रत्येक जन्म में आत्मा के जन्म की इच्छा करते हैं और जब यह इच्छा बलवान हो जाती है, तब हमारे जीवन में किसी सदगुरु का आगमन होता है। सदगुरु समुद्र के समान होता है। जिस प्रकार नदियाँ, नाले अनेक होते हैं, पर समुद्र बहुत विरले होते हैं, ठीक उसी प्रकार सदगुरु बहुत कम होते है।
३५. समुद्र कभी पानी की बूँद तक पहुँचने का प्रयास न करता है, न कर पाएगा। अंत में बूँद को ही समुद्र तक पहुँचना होगा। समुद्र अपनी सीमा में शांत बैठा होता है। ठीक इसी प्रकार सदगुरु अपने स्थान पर होता है। हमें ही उस तक पहुँचना होता है।
३६. "सदगुरु तक पहुँचने की यात्रा जन्मों-जन्मों का प्रवास है।"
३७. कई बार आत्मा की पूर्वजन्म की शुद्ध की गई इच्छा के कारण हम सदगुरु तक पहुँच भी जाते हैं, हमारी आत्मा का जन्म भी हो जाता है, पर हम पर शरीर का इतना प्रभाव होता है, हम अपनी जीवन की समस्या में इतने ग्रस्त रहते हैं कि 'आत्मजन्म', 'आत्मसाक्षात्कार' का एहसास ही नहीं होता।
३८. उस एहसास को जानने के लिए हमें आत्मिक स्तर पर जाने की आवश्यकता है। सदगुरु कहता है- मेंने मेरा सर्वस्व दे दिया और हम हैं कि हमें कुछ भी एहसास ही नहीं हुआ क्योंकि शरीर के भोग में से हम निकले नहीं हैं।
३९. मुझे भी शरीर के भोग समाप्त हुए बिना आत्मजागृति का एहसास नहीं हुआ। सदगुरु ने कहा, "मैंने मेरा सर्वस्व तुझे दे दिया" और मुझे कुछ एहसास भी नहीं हो रहा था। मैं शारीरिक स्तर पर देख रहा था। जब आत्मिक स्तर पर गया, तभी अनुभ कर पाया।
४०. आत्मसाक्षात्कार मनुष्य का दूसरा जन्म होता है। यह आत्मिक स्तर होता है। जब तक शरीर के कुसंस्कार नहीं छूटते, तब तक उसका एहसास नहीं होता।
आध्यात्मिक सत्य, पृष्ठ. १०३-१०४.
अब चौथे दिन शिविर में नाभि चक्र पर प्रवचन था। यह मेरा प्रिय चक्र है क्योंकि मनुष्य की आध्यात्मिक की शुरआत इसी चक्र से होती है। मैंने कहा , यह मेरा प्रिय चक्र है क्योंकि यह चक्र अच्छा होने से मनुष्य को समाधान मिलता है। आपके इसी चक्र के ऊपर निर्भर है कि आपका जीवन स्वर्ग है या नर्क है। यानी सब कुछ मानने के ऊपर ही है। अगर आपको समाधान है तो आपका जीवन स्वर्ग है। अगर आपको समाधान ही नहीं है , तो आपका जीवन नर्क है। यानी हमारे जीवन में समाधान का कितना महत्त्व है , इस बात को समझा जा सकता है। कई बार हम ईर्ष्या के कारण भी असमाधनी हो जाते हैं। यानी जैसे पड़ोसी के धर हमारी कार से अच्छी कार आ जाए तो हम अचानक असमाधानी हो जाते हैं क्योंकि जो कार हमें सालों से समाधान दे रही थी वह अचानक ही छोटी हो गई क्योंकि उसकी तुलना में एक बड़ी अच्छी कार पड़ोसी के यहाँ आ गई। और इस प्रकार ईर्ष्या का तो कोई अंत ही नहीं है। यह हमारे जीवनभर चलते रह सकती है। और सदैव याद रखो , यह जितनी भी भौतिक वस्तुएँ हैं , जितने भी भौतिक साधन हैं यह हमें हमारे जीवन में सुविधा दे सकते है ; समाधान नहीं।
भाग - ६ -२१०
भाग - ६ -२१०
" इसलिए सदगुरु को ही मैने परमात्मा माना और अपने "मै" के अहंकार को विसर्जित किया। जिस प्रकार मनुष्य को डूबकर आत्महत्या करनी है ओर अपने शरीर को नष्ट करना है तो अत्यधिक जल की आवश्यकता होती है। अत्यधिक जल वाले स्थान में ही डूबकर वह आत्महत्या कर सकता है, अपने शरीर को समाप्त कर सकता है। ठीक इसी प्रकार से मनुष्य को अपने "में" के अहंकार को विसर्जित करने के लिए सदगुरु के दयासगर की आवश्यकता होती है। उन्हीं के कृपासागर में मनुष्य अपने "में" के अहंकार को समाप्त कर सकता है। लेकिन सदगुरु को केवल पाकर काम न चलेगा। हमें उन सदगुरु को अपना समर्पण करना होगा। यह सदगुरु नहीं करा सकते, यह हमें स्वयं ही करना होगा। केवल सदगुरु को पाकर कुछ नहीं होता। सदगुरु को समर्पित होकर अपना अस्तित्व खोना आवश्यक है अन्यथा तो ' मैने सदगुरु को भी पा लिया ', यह नया अहंकार आप में आ जाएगा। तो यह नया अहंकार आपके अहंकार को वृद्धिगत ही करेगा। अहंकार समाप्त कहा हुआ? उल्टा, ओर अहंकार बढ़ गया। अहंकार बढ़ जाने पर मनुष्य प्रदर्शन करता है ओर अहंकार कम हो जाने पर मनुष्य अंतर्मुख होता है। आप इसी से अपनी स्वयं की पहचान कीजिए। इस प्रकार मोक्ष की राह में सबसे बड़ी बाधा यह 'में ' का अहंकार ही है क्योंकि इस अहंकार से ही शरीर का प्रभुत्व आत्मा पर बना ही रहता है। शरीर में रहते हुए, शरीर के बन्धन से मुक्त होना ही मोक्ष है। मनुष्य की मृत्यु हो जाने पर तो आत्मा मनुष्य के शरीर के प्रभाव से मुक्त हो जाती है। लेकिन शरीर के भीतर रहते हुए अगर आत्मा शरीर के प्रभाव से मुक्त हो पाती है तो वह स्थिति ' मोक्ष ' कहलाती है। ओर यह स्थिति केवल और केवल अपने 'सदगुरु' को समर्पित होकर ही प्राप्त की जा सकती है। आप साधना करके प्राप्त करने का प्रयास करोगे तो कई जन्म और लग जाएंगे। यह एक रहस्य है, लेकिन यह जिसने जाना, वह यह रहस्य दूसरे को नहीं बता पाता है।"
भाग -६ ,पेज २९-३०
*॥जय बाबा स्वामी॥*
भला फूलों में ऐसा क्या है , जो उसे विश्व-संस्कृती का अविभाज्य अंग बनाता है। दर असल , फूल किसी भी स्थान को सजीव-सुंदर चैतन्य प्रदान करते हैं। फूल किसी भी स्थान की दूषित ऊर्जा को शोषित कर उस स्थान को चैतन्य से परिपूर्ण करते हैं।
पूजा के स्थान , जहाँ मानव नतमस्तक हो अपनी दूषित ऊर्जा समर्पित कर नवचैतन्य ग्रहण करने का प्रयास करता हैं , वहाँ फूल उस दूषित ऊर्जा को ग्रहण कर सुख जाते हैं अथवा मूरझा जाते हैं , किंतु पूजा के स्थान को दूषित नहीं होने देते।
विवाह के समय परिवारजनों एवं ईष्ट-मित्रों का चित्त दुल्हा-दुल्हन पर होता है। जाने-अनजाने में भी सभी की दूषित ऊर्जा का परिणाम नवदंपत्ति पर न हो , इसलिए उनके शृंगार में फूलों का प्रयोग होता है।
--- पूज्या गुरुमाँ
*मधुचैतन्य जुलै २००५/६*
*मधुचैतन्य जुलै २००५/६*
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