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Showing posts from August, 2017

सारी भविष्य की संभावनाएं युवा पीढ़ी के हाथ मे है।

सारी भविष्य की  संभावनाएं युवा पीढ़ी के हाथ  मे है। आनेवाली मनुष्यजाती का निर्धारण युवापिढी ही करेगी आपने अपने जीवन मे कितनी ही संपत्ति  जोड ली और संतति 'कुपूत' है,  तो वह आपके द्वारा जोडी  गई सब  संपत्ति का विनाश कर देगी। और जीवन मे आपने अच्छी। 'सूपूत' संतति  जोडी है  तो वह स्वयं भौतिक संपत्ति का निमार्ण  कर सकती  है । इसलिए  माँ -बाप का असली धन  उसकी  संतति  ही है । इस संतति मे विश्व का भविष्य छुपा हुआ है । विश्व का निर्धारण यही करेगी । आप पर निर्भर है,  आप इसके लिए कितना अपना योगदान देते है । Aadhyatmik satya Pg.97

गुरूकृपा और गुरुदक्षिणा में ही जीवन है।

गुरु जी तुम्हें सौंपते है, वह 'गुरूकृपा' है और तुम उनका क़र्ज़ चुकाने के लिए सौंपते हो, वह 'गुरुदक्षिणा' है। बस 'गुरूकृपा' और 'गुरुदक्षिणा' में ही जीवन है। HSY 1 pg 146

जब जागो तब सबेरा

वर्तमान  में  रह  कर ही  प्रगती  की  जा सकती  है  । 'जब  जागो  तब  सबेरा  ' ऐसी  कहावत  है । तो  आओ  ,आज  जागे  है  तो  आज  से  ही सही ....आध्यात्मिक  उन्नति की और  एक -एक  कदम  मजबुतीसे  बढाये.......बढ़ते  ही  जाये ।. गुरु  माँ

जीवंत मूर्तिया

"वे जीवंत मूर्तियाँ स्वयं बोल उठेंगी, वे मनुष्य के प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देंगी, प्रत्येक समस्या का समाधान देंगी अशांत मन को 'शांति' देंगी, भयभीत मन को 'विश्वास' देंगी, निराधार को 'आधार' देंगी, बीमार को 'स्वास्थ्य'  देंगी। ये मूर्तियाँ तो ' कल्पवृक्ष ' के समान होंगी!उसके सान्निध्य में,आप चाहोगे तो पाओगे, ऐसी स्थिति होगी। वे जमाने के ठुकराए हुए मनुष्य को भी अपनाएँगी। उनके द्वार पर 'खोटेसिक्के' भी चल पड़ेंगे,बस, दर्शन करने वाला कितने विश्वास से आता है,कितने विश्वास से अपनी बात कहता है,इस पर सब निर्भर होगा। वह तो माध्यम है, परमात्मा ही उसके भीतर बैठकर सब सुनते रहता है, इसका अनुभव भी  लोगों को आएगा।जो मनुष्य शायद अपने अहंकार के कारण  तुम्हें समर्पित न हो पाए हों,वे भी उस मुर्तिरुपी माध्यम के सामने झुकेंगे। और वे जितने खाली होंगे,उतने ही वे चैतन्य से भर जाएँगे।" "उन मूर्तियों के माध्यम से ' ईश्वरीय अनुभूति ' उन लोगों तक भी पहुंचेगी जिन लोगों तक तुम अपने जीवनकाल में नहीं पहुँच सकोगे।यानी तुम्हारा कार्य तुम्हारे ब

उपासना पध्दति श्रेष्ठ है या ध्यान श्रेष्ठ है?

एक दिन सुबह -सुबह मैने सूर्य के दर्शन किए  और सूर्यदेव को ही नमस्कार करके मैने मेरे गुरूदेव को याद किया  और प्रार्थना की "गुरूदेव,  मेरा मन बडी दुविधा मे है। कुछ मागॅ बताइए -उपासना पध्दति श्रेष्ठ है  या ध्यान श्रेष्ठ है?  बडी असमंजस की स्थिति है । आगे का मार्ग नही दीख रहा है ।" सूरज की पहली किरण के साथ मुझे उत्तर आया,  ।"जो दिख रहा है,  उसमे उत्तर मत खोज। जो अनुभव  हो रहा है, उसमे उत्तर है। अनुभव कर!यह  अनुभव  आध्यात्मिक क्षेत्र  की प्रगति की पादान है ।" Hksy part 2 pg 53

गुरुदेव के माध्यम से परमात्मा तक

नदी के उस पार 'परमात्मा' होता है और नदी के इस पार 'हम' होते हैं। हम चाहकर भी उसे और वे चाहकर भी हमें मिल नहीं सकते हैं। लेकिन नदी (जीवनरूपी नदी) में एक स्थान ऐसा आया, जहाँ पर परमात्मा, श्री शिवबाबा के शरीररूपी 'पुल' से मेरी ओर आकर मुझसे मिला और मुझे उस पार कैसे जाया जाए, यह मार्ग भी बताकर गया। और मैंने बाद में अपना सारा ध्यान उसी पुल पर केंद्रित किया। *जब परमात्मा चैतन्य के रूप में इस गुरुदेव के माध्यम से इस ओर आ सकता है तो मैं भी इसी 'गुरुदेव' के माध्यम से परमात्मा तक पहुँच सकता हूँ।* पूज्य गुरुदेव ।। श्री सदगुरू वाणी ।। पृष्ठ - ३६

મનુષ્ય પોતાના અહંકારને કારણે સમજે છે- હું બંધનમાં છું.

" પ્રત્યેક મનુષ્ય મુક્ત છે પણ મનુષ્ય પોતાના અહંકારને કારણે સમજે છે- હું બંધનમાં છું. અને આ ભ્રમ તો જીવનભર બન્યો રહે છે.  આત્મા ક્યારેય બંધનમાં હોતો જ નથી. માત્ર એક ભ્રમની દશા છે અને એ ભ્રમની દશાને કારણે મનુષ્યમાં શરીરના વિકાર નિર્માણ થાય છે અને તે વિકાર મનુષ્યના મૃત્યુ સુધી રહે છે. ખરાબ કર્મો ભોગવવા માટે પણ નવો જન્મ અને સારાં કર્મો ભોગવવા માટે પણ નવો જન્મ મનુષ્યે લેવો પડે છે. તો કર્મોમાંથી મુક્તિ નથી હોતી અને તે ક્રમ જ્યાં સુધી કોઈ સદગુરુ નથી મળતા, ત્યાં સુધી ચાલતો જ રહે છે. સદગુરુ મળ્યા પછી પણ કેટલા લોકો પોતાના આત્મા ને પ્રકાશિત કરી શકે છે, તે પણ એક મોટો પ્રશ્ન છે." " ડૉક્ટરબાબા કહી રહ્યા હતા તો લાગી રહ્યું હતું કે તેઓ પોતાના જીવનનો બધો સાર જ જણાવી રહ્યા છે.  કારણ કે કેટલીયવાર આપણો આત્મદીપક પ્રગટી ગયો એવો ભ્રમ થાય છે જ્યારે કે પછીથી જીવનમાં અંધારું છવાઈ જતાં ખબર પડે છે- જે પ્રકાશ અત્યાર સુધી જણાતો હતો તે બીજાના દીપકનો હતો.  સામુહિકતામાં આપણને એ ભ્રમ થઈ ગયો હતો કે તે પ્રકાશ આપણો જ હતો. વાસ્તવમાં, સામુહિકતામાં પ્રગતિ અવશ્ય થાય છે પરંતું તેપણ સત્ય છે કે સામુહિકતામાં પ્રગત

प्रत्येक मूर्ति का एक-सा आभामण्डल होगा,एक-सा विश्व होगा।

" कुछ मूर्तियाँ अच्छे ऊर्जास्थानों का निर्माण करेंगी यानी मूर्तियों के स्थापित होने के बाद हीअच्छे ऊर्जास्थानों  का निर्माण होगा।और कुछ मूर्तियों के संदर्भ में ऐसा होगा कि पहले  शुध्द और पवित्र स्थानों का निर्माण होगा और वे ऊर्जास्थान मूर्तियों को आमंत्रित करेंगे।उन ऊर्जा स्थानों के कारण गुरुशक्तियाँ वहाँ मूर्तियों के रूप में जाकर स्थायी होंगी और वे स्थान और अधिक गति से कार्यरत हो जाएँगे। आत्माओं की एक बड़ी सामूहिकता इनके आसपास के भू-भाग पर निर्मित होगी।ठीक इसी प्रकार से ,कुछ मूर्तियाँ तुम अपने इच्छा से स्थापित करोगे और कुछ मूर्तियों को गुरु शक्तियाँ तुम्हारे हाथों से स्थापित करा लेंगी। और वे कब स्थापित हो गईं,तुम्हे उसका पता भी नहीं चलेगा।" " प्रत्येक मूर्ति का एक-सा आभामण्डल होगा,एक-सा विश्व होगा।इनकेआसपास एक शांत , कल्याणकारी, सकारात्मक ऊर्जा से भरा,चैतन्यपूर्ण स्पंदनों से भरा हुआ वातावरण सदैव होगा। एक शांत विश्व में जो भी आत्मा जाकर  'आत्मानंद ' का अनुभव करेगी,वह वहाँ पर बार-बार जाना चाहेगी।उनके आसपास सदैव एक-सा शांत ,प्रसन्नचित्त वातावरण होगा।बाहरी जगत का प

प्रत्येक विचार की निर्मिति मनुष्य के ध्वारा ही होती हैं

प्रत्येक विचार की निर्मिति मनुष्य के ध्वारा ही होती हैं क्योंकि प्रकृति के कोई अपने विचार नहीं होते हैं | विचार ही अप्राकृतिक हैं | इसलिए जैसे ही हम प्रकृति में जाते हैं, स्वयं ही हमारे विचार बन्द हो जाते हैं | और विचार अधिकतर किसी-न-किसी मनुष्य से जुड़ा होता हैं | इसी कारण हम जब भी विचार करते हैं तो वह विचार किसी मनुष्य से सम्बन्धित होगा | और जब हमारा चित उस विचार के माध्यम से उस व्यकित पर जाएगा तो उस व्यकित के आभामण्डल का, उसके विचारो ं का, उस समय की उसकी स्थिति का प्रभाव भी हमारे ऊपर पड़ेगा | और केवल एक विचार से अनेक विचारो की शृंखला ही शुरु हो जाएगी | और  प्रत्येक विचार मनुष्य को  अपने स्वंय की ग्रहण करने की क्षमता से अलग करता हैं | यानी एक निर्विचार मनुष्य आसपास के वातवरण से विश्वचैतन्य ग्रहण करता रहता है | हि.स.यो-४

परमात्मा

*इस  विश्व  में  परमात्मा   सर्वत्र  है । *वह  प्रत्तेक  मनुष्यमात्र  में  बसता  है , प्रत्तेक  प्राणी  में  बसता  है । *हम  पास  के  परमात्मा  को  छोड़कर  बाहर  के  परमात्मा  की  खोज  में  समय  बर्बाद  करते  है । *परमात्मा  किसी  ना  किसी  रूप  में  विश्व  में  प्रगट  होते  ही  रहता  है । बस  हमे  उसे  पहचानते  आना  चाहिए । परम पूज्य गुरुदेव आध्यात्मिक सत्य

स्वामीजी पधारो

वैसे  तो  गुरु  के  दर्शन  की  अभिलाषा  सभी  साधकों  को  सदैव  होती  ही  है । किंतु  विशेष  उत्सवों  के  समय  यह  उत्कंठा , यह  अभिलाषा  अपने  चरमोत्कर्श  पर  होती  है । गुरु  के  आगमन  से  पूर्व  ही  वातावरण  चैतन्यपूर्ण  हो  उठता  है । सुगमसुगंध  से  परिपूर्ण  सूरभित  पवन  तथा  पंछियों  का  सुमधुर  कलरव  भी  गुरुस्वागत  में  रागिनी  छेडते  हुए  कहता  है , "स्वामीजी पधारो "। वंदनिय गुरुमाँ

'गुरुकार्य' यानी आत्मा का कार्य

'गुरुकार्य' यानी आत्मा का कार्य, जिसे करने से अपनी आत्मा को प्रसन्नता मिले, वह कार्य। क्यूँकि आत्मा को प्रसन्न करने के लिए हम जो भी कार्य करेंगे, उस से आत्मा प्रसन्न होगी। और आत्मा प्रसन्न होगी तो उसकी ग्रहण करने की क्षमता बढ़ेगी तो आध्यात्मिक प्रगति होगी। HSY 4 pg 215

सद्गुरु को पहचानने के लिए प्रथम निसर्ग से जुड़ना होगा

"सद्गुरु को पहचानने के लिए प्रथम निसर्ग से जुड़ना होगा और निसर्ग से जुड़ने के लिए प्रथम अबोध बालक बनना होगा। क्योंकि अबोधित के बिना पवित्रता आ नहीं सकती है। पवित्रता से मेरा आशय शरीर की पवित्रता से नहीं, चित्त की पवित्रता से है। और चित्त की पवित्रता अबोधिता के बिना संभव नहीं है। अबोधिता से प्रथम देहभाव छूटता है और देहभाव छूटने के पहले देह का आकर्षण छूटता है। और देह के आकर्षण के पहले देह की सुप्त वासनाएँ छूटती हैं। आध्यात्मिक मार्ग में यह क्रमबद्ध तरीके से होता ही रहता है।" हि.स.भा.4 प.53

गुरु साक्षात परब्रह्म

"गुरु  साक्षात  परब्रह्म " इस  एक  वाक्य  में  ही  बड़ा  रहस्य  छुपा  हुआ  है ।  वह  जिसने  अनुभव  कर  लिया , उसे  जानने  के  लिए  कुछ  बाकी  ही  नही  रहता  है । [ आध्यात्मिक सत्य ]

गुरुसेवा सर्वश्रेष्ठ  पुन्यकर्म  है

सदगुरु  के  लिए  किया  गया  "गूरूकार्य " ही  वह  पुण्यकर्म  है  जो  आपको  लाखों  आत्माओं  की  सेवा  का  अवसर  प्रदान  करता  है । लाखों  आत्माओं  की  सेवा  करने  का  "सौभाग्य " जब  आपको  प्राप्त  हो  तभी  एक  सदगुरु  की  सेवा  करने  का  अवसर  प्राप्त  होता  है  क्योंकि  आप  गुरुसेवा  करके  एक  आत्मा  से  लाखों  आत्माओं  तक  पहुँचते  है । "गुरुसेवा " सर्वश्रेष्ठ  पुन्यकर्म  है , यह  मै  मेरे  अनुभव  के  आधार  पर  कह  रहा  हूँ । परमपूज्य गुरुदेव ही .का .स .योग . भाग -५-- ३१

स्थूल शरीर के सूक्ष्म शरीर में विसर्जन ' की प्रक्रिया

वास्तव में,यह 'स्थूल शरीर के सूक्ष्म शरीर में विसर्जन ' की प्रक्रिया है। लेकिन इस प्रक्रिया में अगर एक से अधिक स्थान का निर्माण हो तो वह अच्छा प्रतीत होता है। बाद में मूर्तियों में स्थापित  की गई संकल्पशक्त्ति से ही सूक्ष्म शरीर का विस्तार बढ़ने लगेगा और स्थूल शरीर का बोझ भी कम होने लगेगा। क्योंकि यह कार्य बहुत विशाल स्तर पर होने वाला है जिसका अंदाज अभी किसी को भी नहीं है।" "ये मूर्तियाँ तो खाली होने के लिए केवल निमित्त होंगी लेकिन पास की लगने से मनुष्य आसानी से खाली हो जाएगा। वह खाली कब हो गया ,उसका उसको भी पता नहीं चलेगा। मूर्तियाँ तो मनुष्य के अहंकाररहित होने में केवल निमित्त होंगी।मनुष्य जितना खाली होगा , सामूहिकता की शक्त्ति उतनी ही गुरुओं के आशीर्वाद के रूप में प्राप्त होगी। और बाद में गुरुओं की सकारात्मक सामूहिक शक्त्ति का प्रभाव ही उसे संतुलित करेगा और संतुलित मनुष्य के हाथ से संतुलित कार्य घटित होंगे और उसका जीवन एक आत्मिक समाधान और शांतिभरा जीवन हो जाएगा। क्योंकि जैसे ही मनुष्य  का अहंकार समाप्त होगा,उसके ही भीतर की आत्मा प्रकट होगी। उस आत्मा को परमात्मा की

सर्विसिंग

शरीर  एक  वाहन  है  और  यह  वाहन  सर्विसिंग  के  लिए  "आश्रमरूपी " गैरेज  में  साल  में  एक  बार  तो  भी  लाना  ही  चाहिए ,  जहाँ  वह  अपनी  मर्जी  से  नही , मैकेनिक  के  मर्जी  से  चलेगा । सदगुरुरूपी  "मैकेनिक " गाडी  के  नट -बोल्ट  ठीक  कर  देगा ।  बस  आपको  आपकी  शरीररूपी  गाडी  उसे  कुछ  दिन  क्यों  न  हो , सौंपनी  होगी । पूज्य गुरुदेव आध्यात्मिक सत्य

जय गणेश

" हे  बाप्पा ! आप  शुद्धता ,  पवित्रता  का  प्रतीक  है  और  सुख -संतोष  के  दाता  भी ! इस  इट -सीमेंट  के  घर  को  तथा  पंचतत्वों  से  निर्मित  देह  को  शुद्ध -पवित्र  रखने  का  प्रयास  हम  कर  सकते  है  किंतु  आपकी  कृपादृष्टि  के  बिना  यह  संभव  नही  है । बाप्पा , इस  घर  में , हम  सभी  के  मन  में  इतना  संतोष  भर  दे  की  भौतिक  सुविधाओं  में  मन  न  उलझे  अपितु  आत्मिक  सुख  की  अनुभूति  में  लीन  रहे ..बाप्पा , यह  केवल  आप  ही  कर  सकते  है ..केवल  आप ..केवल  आप ..!  !  !  "     वंदनिय गुरुमाँ      "माँ " पुष्प १         पृष्ठ २२१

ध्यान करने से दो प्रकार की घटनायें घटती है।

ध्यान करने से दो प्रकार की घटनायें घटती है। प्रथम तो, ख़राब विचारों से शरीर के आसपास जो ख़राब ऊर्जा निमित हुई रहती है, वह इकठा होनी बंद हो जाती है। और फिर जो ख़राब ऊर्जा जमा है, वह भी धीरे धीरे समाप्त हो जाती है। दूसरा प्रभाव यह होता है- सम्पूर्ण ख़राब ऊर्जा समाप्त होने के बाद अच्छी , पवित्र, सकारात्मक, अच्छी ऊर्जा इकठा होकर, अपने शरीर के आसपास अच्छी ऊर्जा का आभामंडल बना देती है। और वह आभामंडल बन जाने के बाद नकारात्मक विचार नहीं आते है। HSY 1 pg 471

समर्पण ध्यान

समर्पण  ध्यानयोग , ध्यान  की  वो  योग  पद्धति  है  जिस  पद्धति  से  एक  संपूर्ण  योग  की  स्थिति  आप  आपके  जीवन  में  प्राप्त  कर  सकते  है । योग  के  द्वारा , आपके  पूरे  शरीर  को  संरक्षण  प्राप्त  होता  है , पूर्ण  प्रोटेक्शन  मिलता  है । कभी  भी  आपके  जीवन  में  कोई  दुर्घटना  नही  होगी । परमपूज्य गुरुदेव डॉक्टर संगोष्ठी [अहमदाबाद ]   जुलै २०१५

सदगुरु आशीर्वाद देकर मुक्त नही होते

"शिष्य  आशीर्वाद  लेकर  छूट  जाता  है  लेकिन  सदगुरु  आशीर्वाद  देकर  मुक्त  नही  होते , आशीर्वाद  पूर्ण  फलिभूत  होने  तक  वे  चेतना  के  रूप  में  शिष्य  के  सदैव  साथ  ही  होते  है । "     पूज्य स्वामीजी     ही .का .स .योग          खंड  ५

भगवान पार्श्वनाथ

* आत्मा  सदैव  अनंत  चेतना  तथा  परमानंद  से  युक्त  होती  है । कोई  भी  मनुष्य  उसे  जाने  बिना , उसके  प्रति  श्रद्धा  रखे  बिना  तथा  उसमे  समाहित  हुए  बिना  सच्चा  सुख  प्राप्त  नही  कर  सकता  है । * आत्मा , अनंत  ज्ञान , अनंत  बोध , अनंत  शक्ति  एवं  परमानंद  के  साथ  स्वयं  में  परिपूर्ण  होती  है  । * आत्मा  अपनी  मूल  विशेशताओं  को  कभी  खोती  नही  है  तथा  बाहर  से  कुछ  ग्रहण  भी  नही  करती  है । * प्रत्तेक  आत्मा  स्वतंत्र  होती  है  और  किसी  भी  परिस्थिती  में  इन  विशेशताओं  से  वह  विमुख  नही  होती  है ।    मधूचैतन्य   जुलै २०१५

जीवंत मूर्तियाँ स्वयं बोल उठेंगी ,वे मनुष्य के प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देंगी,

" वे जीवंत मूर्तियाँ स्वयं बोल उठेंगी ,वे मनुष्य के प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देंगी, प्रत्येक समस्या का समाधान देंगी अशांत मन को ' शांति ' देंगी, भयभीत मन को ' विश्वास ' देंगी, निराधार को ' आधार ' देंगी, बीमार को ' स्वास्थ्य '  देंगी। ये मूर्तियाँ तो ' कल्पवृक्ष ' के समान होंगी!उसके सान्निध्य में,आप चाहोगे तो पाओगे, ऐसी स्थिति होगी। वे जमाने के ठुकराए हुए मनुष्य को भी अपनाएँगी। उनके द्वार पर 'खोटेसिक्के' भी चल पड़ेंगे,बस, दर्शन करने वाला कितने विश्वास से आता है,कितने विश्वास से अपनी बात कहता है,इस पर सब निर्भर होगा। वह तो माध्यम है, परमात्मा ही उसके भीतर बैठकर सब सुनते रहता है, इसका अनुभव भी  लोगों को आएगा।जो मनुष्य शायद अपने अहंकार के कारण  तुम्हें समर्पित न हो पाए हों,वे भी उस मुर्तिरुपी माध्यम के सामने झुकेंगे। और वे जितने खाली होंगे,उतने ही वे चैतन्य से भर जाएँगे।" "उन मूर्तियों के माध्यम से ' ईश्वरीय अनुभूति ' उन लोगों तक भी पहुंचेगी जिन लोगों तक तुम अपने जीवनकाल में नहीं पहुँच सकोगे।यानी तुम्हारा कार्य

12 सालो की ध्यानसाधना

चित्त को पवित्र करने मे  12  सालो की  ध्यानसाधना   करनी  होती है। यह क्षणभर  मे  संभव  नही है । जो चित्त  क्षणभर  मे  पवित्र  हुआ,  वह क्षणभर मे दूषीत भी  हो  सकता है। वह अस्थायी  स्वभाव  का है,  स्थायी  पवित्रता  आत्मा  की  पवित्रता  है जो एक  बडी  ध्यानसाधना  से ही  संभव होती है। एक बार  चित्त  की पवित्रता का  दीपक  जल  जाये, तो  फीर उस दीपक की लौ  के  सान्निध्य  मे अनेक दीपक जल उठ सकते है । HSY part 2 Pg.65/66

आत्मा बनो

"मन "कई  बुरी  बाते  सोचता  है । "शरीर "वह  सब  करने  को  भी  तयार  हो  जाता  है , "बुद्धि "भी  मान  जाती  है । इन  तीनों  से  ऊपर  "आत्मा " होती  है । वह  इन  तीनों  की  सहमति  होने  पर  भी  बुरी  "घटना " होने  नही   देती  है । क्योंकि  आत्मा  पवित्र  है , शुद्ध  है । आत्मा  बनो । बाबा स्वामी मस्कत , ओमान

शुद्ध इच्छा का वरदान

मनुष्य योनि में जन्म लेने के बाद मनुष्य को शुद्ध इच्छा का वरदान मिलता है कि वह जैसी इच्छा करे, वैसा ही स्वयं का निर्माण कर सकता है। HSY - 3

હું નો અહંકાર એક શરીરનો સહુથી મોટો વિકાર છે

"   'હું' નો 'અહંકાર' એક શરીરનો સહુથી મોટો વિકાર છે જે ખૂબ જ સૂક્ષ્મ હોય છે. અને તે જતો રહ્યો એવું લાગે છે.  પરંતું તે જતો નથી. તે રૂપ બદલી નાખે છે. એટલા માટે એના નવા રૂપને ઓળખવુ ખૂબ કઠિન થઈ જાય છે. આપણે એ નવા રૂપને ઓળખી શકીએ ત્યાં સુધી તે બીજું નવું રૂપ લે છે. મનુષ્યજીવનમાં 'હું ' ના અહંકારમાંથી મુક્તિ મેળવવી અસંભવ છે. એને તો આપણે સમર્પિત જ કરી શકીએ છીએ. મનુષ્યના બધા વિકાર ધીરે-ધીરે ઓછા થતાં- થતાં સમાપ્ત થઇ જાય છે પણ આ 'અહંકાર' નો વિકાર સદૈવ માત્ર રૂપ બરલતો રહે છે.  'અહંકાર' જો ચિત્તમાંથી નીકળી પણ ગયો તો શરીર ઉપર એનો પ્રભાવ પાડશે. શરીરમાં ગરમી વધી જશે અને શરીરની ગરમીથી શરીરની તકલીફો વધી જશે. આનો એક જ સરળ ઉપાય છે- પોતાને થોડાક દિવસ નિષ્કિય  રાખવા અને ધ્યાનસાધના કરવી અને સદૈવ પોતાનું નિરીક્ષણ કરવું. હિ.સ.યોગ.૫, પેજ. ૪૦૬.

सदगुरु सदैव आत्म्स्वरूप की स्थिति में रहते है।

सदगुरु  सदैव आत्म्स्वरूप की स्थिति में रहते है। उनके जैसी स्थिति हमें भी पानी होगी तो हमें उनके साथ चित से जुड़ना होगा। जय बाबा स्वामी HSY 4 pg 139

समर्पण ध्यान

गुरु  आज्ञा  से  स्वामीजी  उस  ध्यान  पद्धति  को  समाज  में  लाए । गुरुओं  के  प्रति  समर्पण  भाव  के  कारण  ही  गुरुदेव  इस  ध्यान  पद्धति  को  जान  सके  अत: इसका  नाम  रखा  गया -- "समर्पण ध्यान " विश्व  का  प्रत्तेक  मानव  आत्मा  के  पूर्ण  समर्पण  द्वारा  इस  ध्यान  के  ज्ञान  को  प्राप्त  कर  सकता  है ।   सहधर्मचारिणि       गुरु माँ

सम्पूर्ण तृप्त स्थिति ही मोक्ष स्थिति है

शरीर  तो  साथ  नही  दे  रहा  है , लेकिन  फिर जीवित  रहने  की  लालसा  अभी  बाकी  है , तो  उस  लालसा  को  पूर्ण  करने  के  लिए  आत्मा  को  फिर  दुसरा जन्म  लेना  पड़ता  है । लेकिन  अगर  जीवनकाल  में  ही  वह  स्थिति  प्राप्त  हो  जाए  की  और  जीने  की  भी  लालसा  जीवन  में  न  रही  हो , तो  कोई  कारण  ही  नही रह  जाता  की  मनुष्य  दुसरा  जन्म  ले । यह  सम्पूर्ण  तृप्त  स्थिति  ही  मोक्ष  स्थिति  है । पूज्य गुरुदेव आध्यात्मिक सत्य

संतुलन

अगर  नारियल  में  अच्छा  खोबरा  अंदर  तयार  हो  गया  और  अच्छी  मिठास  उसमे  प्राप्त  हो  गई  तो  फिर  नारियल  में  पानी  भीतर  नही  रहेगा  क्योंकि  वही  पानी  खोबरे  में  परिवर्तित  हो  गया  होता  है । और  भीतर  का  पानी  मीठा  होता  है , ऐसे  नारियल  में  खोबरा  नही  होता  है । यह  एक  रूपांतरित  की  प्रक्रिया  है । मनुष्य  के  भीतर  का  भाव  ही  बाद  में  समय के  साथ -साथ  बुद्धि  में  परिवर्तित  हो  रहा  है । इसीलिए  समय  के  साथ -साथ  भाव  कम  हो  रहा  है  और  बुद्धि  अधिक  विकसित  हो  रही  है । लेकिन  आवश्यकता  है  संतुलन  की  और  उस  संतुलन  को  बनाए  रखने  की । ही .का स .योग . भाग ५ पृष्ठ ९९ पू .गुरुदेव