गुरुशक्ति को पत्र
हे गुरुदेव , जिस प्रकार कार्य क्षेत्र को विकसित कर रहे हो , वैसे ही साधकों के र्हदय को भी विकसित करो और उनके र्हदय में सभी के लिए प्रेम भर दो । वे जैसा प्रेम मुझसे करते है , वैसा ही प्रेम वे प्रत्तेक मनुष्य से करे । क्योंकि केवल "बड़ी छत "बना कर क्या करना है ? उस बड़ी छत के नीचे मेरे सारे बच्चे एकत्र होना चाहिये । मेरी स्थिति उस "कुतीया " जैसी है जिसके आठ बच्चे होते है तो भी वह सभी बच्चों को एक साथ अपने स्तनोँको चिपका कर ही रखना चाहती है ।
वैसे ही साधकों की संख्या लाखों की हो गई पर मुझे मेरा प्रत्तेक साधक प्यारा है , दुलारा है । मेरे सभी बच्चों को सुबुद्धि दे ताकि मेरे जीवन का वे सही उपयोग ले सके । मुझसे सही मार्गदर्शन पा सके , मुझसे सही प्रश्न पूछ सके , मुझसे शाश्वत कुछ प्राप्त कर सके । अनुभूति का "बीज "उनके भीतर भी "आत्मभाव "अंकुरित कर सके । मेरा यह भाव जानने भी मेरे पास कोई नही आता , इसलिए यह पत्र लिख कर ही मै संतोष कर लेता हूँ । और क्या करू ?
आपका
बाबा स्वामी
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