जीवंत मूर्तिया
"वे जीवंत मूर्तियाँ स्वयं बोल उठेंगी, वे मनुष्य के प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देंगी, प्रत्येक समस्या का समाधान देंगी अशांत मन को
'शांति' देंगी, भयभीत मन को
'विश्वास' देंगी, निराधार को
'आधार' देंगी, बीमार को
'स्वास्थ्य' देंगी। ये मूर्तियाँ तो
' कल्पवृक्ष ' के समान होंगी!उसके सान्निध्य में,आप चाहोगे तो पाओगे, ऐसी स्थिति होगी। वे जमाने के ठुकराए हुए मनुष्य को भी अपनाएँगी। उनके द्वार पर 'खोटेसिक्के' भी चल पड़ेंगे,बस, दर्शन करने वाला कितने विश्वास से आता है,कितने विश्वास से अपनी बात कहता है,इस पर सब निर्भर होगा। वह तो माध्यम है, परमात्मा ही उसके भीतर बैठकर सब सुनते रहता है, इसका अनुभव भी लोगों को आएगा।जो मनुष्य शायद अपने अहंकार के कारण तुम्हें समर्पित न हो पाए हों,वे भी उस मुर्तिरुपी माध्यम के सामने झुकेंगे। और वे जितने खाली होंगे,उतने ही वे चैतन्य से भर जाएँगे।"
"उन मूर्तियों के माध्यम से
' ईश्वरीय अनुभूति ' उन लोगों तक भी पहुंचेगी जिन लोगों तक तुम अपने जीवनकाल में नहीं पहुँच सकोगे।यानी तुम्हारा कार्य
तुम्हारे बाद भी अविरत रूप से चलता ही रहेगा।और गुरुओं की कृपा में प्राप्त हुई शक्तियों को एक शरीर में ही रखना कहाँ उचित है?उन शक्तियों को तुम्हारे जीवनकाल में विभाजन करो। भारतीय संस्कृति में गुरु को देवतुल्य माना जाता है।उनके देहत्याग करने के बाद उनकी मूर्ति तो बनाई ही जाती है लेकिन वह प्रतीक होती है,जीवंत नहीं होती।इसलिए गुरुशक्तियों की इच्छा है कि तुम तुम्हारे जीवनकाल में ही जीवंत मूर्तियाँ
'संकल्पशक्त्ति' के साथ बनाओं ताकि तुम्हारे बाद भी तुम्हारा कार्य करती रहें। इससे तुम्हारे ' समाधि' पर भी शक्तियों का केंद्रीकरण नहीं होगा, और आत्मसाक्षात्कार देने का कार्य विश्वस्तर का है, यह विश्वस्तर पर ही होना चाहिए।.....
हि.स.यो-२
पु-३१३
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