मूर्तियाँ बनाने के पूर्व ऐसे साधक साधना करके तैयार करना होंगे जो इन मूर्तियों के चैतन्य को जान सकें

" समय बीतने के साथ-साथ जैसे-जैसे लोग इस माध्यम का उपयोग अपनी शुध्द इच्छाओं की पूर्ति के लिए माध्यम के रूप में करने लग जाएँगे,वैसे-वैसे उसका कार्यक्षेत्र भी स्वयं विकसित  होना प्रारंभ हो जायेगा। इससेअनेक स्थानों पर एक साथ तुम अपने जीवन में ही गुरुकार्य  कर सकते हो। हाँ,यह आवश्यक है कि ऐसी मूर्तियाँ बनाने के पूर्व ऐसे साधक साधना करके तैयार करना होंगे जो इन मूर्तियों के चैतन्य को जान सकें और उनसे चैतन्य ग्रहण कर सकें।क्योंकि मूर्तियों से जितना चैतन्य ग्रहण किया जाएगा, उतना ही वह बढ़ेगा। यानी प्रथम चैतन्यशक्त्ति का अनुभव  समाज को करना होगा। जब तक अनुभूति का प्रचार-प्रसार नहीं होता,तब तक यह ' मूर्ति  का निर्माण ' का कोई महत्व नहीं है।यह मूर्ति एक सामान्य मनुष्य की होगी,उसका आकार व रूप सामान्य होगा और इसीलिए सामान्य से सामान्य  मनुष्य भी आसानी से इससे जुड़ सकता है।
फिर चाहे वह मनुष्य की जाति, धर्म, देश, रंग, भाषा,लिंग कुछ भी क्यों न हो,सभी को इसके सान्निध्य में अनुभूति प्राप्त होगी। ईश्वरीय अनुभूति को धर्म, जाति,भाषा,देश,रंग,लिंग, उपासनापध्दति की सीमा से बाहर  लाने का प्रयास होगा। परमात्मा सर्वत्र है। यह मूर्ति किसी देवता की नहीं होगा,पर देवता इसमें देवत्व स्थापित करेगा क्योंकि कोई विशिष्ट  देवता आया तो विशिष्ट धर्म भी आया। यह उन सभी सीमाओं के बाहर केवल और केवल ईश्वरीय अनुभूति को प्रधान करेगी।यानी ईश्वरीय अनुभूति कोई भी सामान्य मनुष्य प्राप्त कर सकता है और उस के लिए केवल शुध्द इच्छा की आवश्यकता होगी।....

हि.स.यो-४                    
पु-३९०

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