हमे जीवन में "मै" से निकलकर अपने जीवनकाल में ही "वो" तक पहुँचना है।
हमे जीवन में "मै" से निकलकर अपने जीवनकाल में ही "वो" तक पहुँचना है। "वो" अनंत है , "वो" मोक्ष है , वो "आदि" है , "वो" अन्त है। यह जिवनयात्रा समर्पण ध्यान नियमित करने से संभव है।
हमारे भीतर का भाव चित्त को शुद्ध और पवित्र करता है और शुद्ध चित्त ही हमे सदगुरु का सानिध्य प्रदान करता है। और सदगुरु का सानिध्य मिल जाने के बाद ध्यान खुद-ब-खुद लग जाता है।
आप अपने आपको एक सामान्य मनुष्य ही समझो तो ही उस विश्वचेतना से जुड़े रहोगे। जहाँ आपने कोई विशेष समझा की आप अलग हो गए और दूर-दूर होते ही चले जाओगे।
एक मनुष्य पहले अपने भीतर की "मनुष्यता" को मारता है , तभी वह किसी अन्य मनुष्य को मार सकता है । इसमें दो मनुष्य मरते है। एक शरीर से मरता है , एक की मनुष्यता ही मरती है।
आप जीवन में कितनी अधिक आत्माओं के साथ आत्मीय संबंध बना पाते हो , उसी पर जीवन की सफलता का रहस्य छुपा है।
आध्यात्मिक सत्य
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