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Showing posts from February, 2018

श्री गुरूशक्ति धाम

श्री गुरूशक्ति धाम' आध्यात्मिक जगत की पहली घटना है कि किसी सद्गुरु ने अपने जीवनकाल में अपनी मूर्ति का निर्माण कर उस मूर्ति के भीतर अपने प्राण डाले हो। यह स्थान नए साधकों के लिए प्रायमरी स्कूल है और पुराने साधकों के लिए PHD का ज्ञान कराएगा। आप जिस स्थान पर हो, उस स्थान से आगे की ओर अग्रसर होंगे।         ----- *॥आध्यात्मिक सत्य॥*

मनुष्य योनि एक है,तो धर्म अलग कैसे हो सकते हैं ?

"अपनी आत्मा के द्वारा चुने हुए धर्म के मार्ग पर ही चलना होगा | आत्मा जानती है कि किस मार्ग से मैं परमात्मा तक पहुँच सकती हूँ |'-- धर्म को ही पकडे रखना नहीं है | कट्टर धार्मिक व्यक्ति कभी भी परमात्मा को नहीं पा सकता है ,पर धर्म के बिना परमात्मा की प्राप्ति भी नहीं हो सकती है | धर्म मार्ग है परमात्मा तक पहुँचने का | और ये मार्ग अनेक है | सभी धर्मों का उद्देश्य निर्विचारिता की स्तिथि प्राप्त करना है और उस स्तिथि से ध्यान की शुरुआत होती है | ये सभी बाहरी धर्म बनाए गए हैं भीतरी मनुष्य धर्म को जागृत करने के लिए | और वास्तव में भीतरी धर्म एक ही है - आत्मधर्म | मनुष्य योनि एक है,तो धर्म अलग कैसे हो सकते हैं ? आवश्यकता है उस स्तर तक पहुँचने की जहाँ पहुँचकर ही यह बात समझ में आ सकती है | मनुष्य के प्रत्येक जन्म के साथ बाहरी उपासना पद्धति वाले धर्म बदलते रहते हैं | इसलिए जो सद्गुरु इस बात को जानते हैं और समझते हैं ,उन्होंने सदैव धर्म से उठकर ही कार्य किया है  |  हि.स.यो.२/५७ 

प्रत्येक आत्मा परमात्मा का अंश

" प्रत्येक आत्मा परमात्मा का अंश होती  है और क्या अच्छा है और क्या अच्छा नहीं है, इसका ग्यान प्रत्येक आत्मा को  होता  ही है। कौन सा कर्म करना योग्य है, कौन सा कर्म करना अयोग्य है, इसका ग्यान भी प्रत्येक आत्मा को होता ही है। लेकिन मनुष्य, जन्म के बाद अपने शरीर के प्रभाव में इतना आ जाता है कि वह अपने-आपको शरीर ही समझने लग जाता है और फीर वह शरीर के भाव में आकर ही सारे कर्म करता है। शरीर द्वारा किए गए कर्म पर माया, मोह, रिश्तेदार, संबंधी सभी तो प्रभाव डालते हैं और शरीर के प्रभाव में आकर ऐसे कार्य करता है, जो उसने नहीं करना चाहिए और बाद में उसके फल आने पर फछतावा करता है।" हि.स.योग, 6-पेज. 369.

परमात्मा

१. इस विश्व में परमात्मा सर्वत्र है। २.वही सूर्य को,  चंद्र को,  पृथ्वी को,  तारों को निश्चित स्थान पर रख रहा है। ३.वही भूमि पर संतुलन रख रहा है। 'पानी की मात्रा' बढने नहीं दे रहा है। ४. मनुष्य ' अतिविचार' करके वैचारिक प्रदूषण कर रहा है जिससे गर्मी बढ रही है और उसी से  ' ग्लोबल र्वोर्मिग' का खतरा उत्पन हो रहा है। ५. अधिक गर्मी बढने पर बर्फ पिघल जाएगी और सर्वत्र पानी हो जाएगा। पृथ्वी की जमीन डूब जाएगी। ६.  प्रकृति का संतुलन बिगड जाएगा। अति विचारों से वह बिगड रहा है। ७.  विचार करना प्रकृति के विरोध में है क्योंकि प्रकृति के साथ जुड जाने पर विचार नहीं रह जाते। ८.  'समर्पण ध्यान'  प्रकृति से समरस होना सिखाता है। ९.  'समर्पण ध्यान'  करने से हमारा अस्तित्व प्रकृति से अलग नहीं रह जाता है। १०.  परमात्मा एक। अविनाशी शक्ति है जो विश्व में सर्वत्र विद्यमान है। ११. 'परमात्मा' ही सारे बंह्मड का संचालन व नियंत्रण कर रहा  है। १२. परमात्मा को किसी 'धर्म' के दायरे में बाँधा ही नहीं जा सकता है। १३. परमात्मा कल भी था, '

मोक्ष की स्थिति प्राप्त करने के पाँच नियम

आप जब अपने -आप को शरीर नही ,आत्मा समझते है औऱ मानते हैं, तभी आपका संबंध माध्यम के द्वारा पर्मात्मा से होता है औऱ इस माध्यम पर चित्त रखकर आप बाद में जीवन में मोक्ष की स्थिति पा सकते हैं । इसे करने के पाँच नियम है :-- [ 1 ] आप अपने -आपको आत्मा मानें । [ 2 ] आप सद्गुरु को माध्यम माने । [ 3 ]परमात्मा एक विश्वशक्ति है ,यह माने । [ 4 ] सबका धर्म मनुष्यधर्म है ,यह माने । [ 5 ] नियमित सामूहिक ध्यान करे ।           इन उपरोक्त पाँच नियमों का पालन करके आप इस समर्पण ध्यान की पद्धति को अपना सकते है । ही.का.स.योग...5/189            

स्वामी जी के जोधपुर प्रवास के दौरान घटित एक अद्भुत और चमत्कारिक घटना

स्वामी जी के अनुसार......................... सुबह-सुबह जब जोधपुर पहुँचे और पर्यटक विभाग के सेंटर पर गए और जोधपुर दर्शन के लिए हमने टिकट निकाली तो बाद में मालूम पड़ा, आज मौसम विभाग की चेतावनी है कि आज एक बहुत बड़ा तूफान आने वाला है और इसी कारण सारे बाजार बंद है।इसी कारण बस भी नहीं चलने वाली है। लेकिन बुकिंग करा रखा था। तो उन्होंने केवल हमारे लिए ही विभाग की एक जीप हमें दी थी।हम उस जीप से ही जोधपुर दर्शन को निकले।वह जीप का ड्राईवर भी भयभीत ही था। वह आते ही बोला,"साहब,आज बड़ा तूफान आने वाला है।" तो मैंने उसे कहा," दो तूफान एक साथ नहीं आते हैं।अब मैं आ गया,अब तूफान नहींआएगा।"तो वह ड्राईवर एकदम चिढ़ गया। "ऐसा कभी होता है क्या? एक मनुष्य कभी तूफान हो सकता है क्या ? और रेडियो,न्यूज पेपर्स सभी बता रहे हैं ,बार-बार चेतावनी दे रहेे हैं, यह सब गलत है क्या? मैंने कहा ," तू आज मेरे साथ है ही। तू ही देख ले कैसे तूफान आता है।" लेकिन वह मेरी बात से सहमत नहीं था। लेकिन पत्नी और बच्चे पूर्ण आश्वस्त थे कि" तूफान नहीं आएगा" बोला है तो अब वह नहीं आएगा। "पत्न

स्त्रीशक्ति

" जब  तक  स्त्रीशक्ति  को समान  दर्जा  नही  दिया  जाएगा , तब  तक  समाज  में  कोई  आध्यात्मिक  क्रांति  संभव  नही  है । क्योंकि  तब  तक  समाज  पंगु  होगा । पंगु  समाज  कभी  दौड़  नही  सकता  है । "    - ही.का.स.योग.-खंड 1  " स्त्री " को  वस्तु  का  उपभोग  करने  से  अधिक  वस्तु  को  बाँटने  में  आनंद  आता  है । ग्रहण  करणे  की  क्षमता  स्त्री  में  अधिक  होती  है ।संगोपन  की  क्षमता  स्त्री  में  अधिक ।  होती  है । और  बाँटने  की  क्षमता  स्त्री  में  पुरुषों  की  अपेक्षा  अधिक  होती  है । ये  सब  स्त्रीसुलभ  विशेषताएँ  है । इसलिए  जब भी  कभी  आध्यात्मिक  क्रांति  इस जगत  में  आएगी , तो  उस  आध्यात्मिक  क्रांति  का  क्रियान्वय स्त्रीशक्ति से  ही  होगा । . . . . " - ही.का.स.योग.- -[१]

गहन ध्यान की स्थिति

गुरुकार्य का संकल्प ही वापस नीचे आने में सहायक होता है। गहन ध्यान की स्थिति में एक तो शरीर की सुरक्षा एक और करनी होती है। दूसरी ओर , आत्मा को आत्माओं की सामुहिकता में से वापस शरीर में लाना बड़ा कठीण होता है। क्योंकि गहन ध्यान की स्थिति में शरीर की स्थिति मृत शरीर जैसी ही हो जाती है। और समाज में इस स्थिति  की जानकारी नहीं है। भाग - ६- १४०

आत्मधर्म

      " आत्मधर्म " जागृत  होने  पर  मनुष्य  के  भीतर  का  "प्रेमतत्व "भी  बहने  लग  जाता  है । प्रेमतत्व  बहने  लगने  के  बाद  मनुष्य  सभी  से  ही  प्रेम  करने  लग  जाता  है । वह  सब  में  ही  परमात्मा  के  दर्शन  करने  लग  जाता  है  और  उसे  सर्वत्र  शक्ति  के  दर्शन  होने  लग  जाते  है । फिर  इस  प्रेमतत्व  के  कारण  ही  आध्यात्मिक  प्रगति  होने  लगती  है  और  मनुष्य  अपने  " मैं " के  बूँद  के  अस्तित्व  से  सागर  के  अस्तित्व  में  बदल  जाता  है ।  आध्यात्मिक सत्य संदर्भ :-- मनुष्य धर्म परमपूज्य गुरुदेव 

साधना में पवित्रता

इस मार्ग में साधना में पवित्रता अत्यंत आवश्यक है। और जैसे साधना बठते जाएगी वैसे-वैसे कार्य बठते जाएगा और जीवन के उत्तरार्ध में सबसे बड़ी समस्या है कि अब अगली पीठी के लिए यह कार्य सौपने के लिए माध्यम किसे बनाएँ ? क्योंकि अगला माध्यम ऐसा चुनना होगा हो अगले ८०० सालों तक इस कार्य को आगे लेकर जाए और अब समाज में ऐसा माध्यम चुनना बड़ा कठीण लग रहा है। क्योंकि इतनी पवित्र और शुद्ध स्वरूप में रहकर समाज में रहना कठीण है तो ऐसा माध्यम समाज में मिलेगा कहाँ , यह प्रश्न है। जीवन के सभी प्रश्नों के उत्तर समय के साथ मिलते हैं। गुरुशक्तियाँ सब आगे तक का सोचती हैं। केवल उन पर विश्वास करके जब हम वहाँ पहुँचते हैं तो नया द्धार खुलता है  भाग - ६ - १३९

मैं गुरु से जुड़ा हूआ हूं। इसलिए मेरा तो तूफान से बाल बांका भी नहीं हो सकता।

ड़ा बाहर आया और आपकी राह देखते बैठा हूं। आपके छोटे-छोटे बच्चों ने भी आप पर विश्वास किया और मैंने नहीं। मैंने उसका हाथ पकड़ कर उसे समझाते हुए कहा कि ,"मैं भी गुरुमार्गी ही हूं। और मेरा मेरे गुरु पर पूर्ण विश्वास है। इसलिए मैंने यह समझ लिया कि मैं गुरु से जुड़ा हूआ हूं। इसलिए मेरा तो तूफान से बाल बांका भी नहीं हो सकता। अब रही बात तूफान की "मुझे यहां भेजकर वास्तव में गुरु ने इस स्धान को सुरक्षित किया था और उनकी यह योजना मुझे मालूम पड़ गई थी। इसलिए हम निश्चिंत थे।बच्चों का भी मेरे पर विश्वास था, मेरा मेरे गुरु पर विश्वास था। हमारा विश्वास ही हमारे ही विश्वास के आभामंडल को विकसित करता है। अब वह ड्राईवर बेफिक्र था। वह बोला , "आपके सानिध्य में मुझे आनंद आ रहा है "स्वामी जी द्वारा वर्णित..इस ब्रह्मांड में व्याप्त विश्वचैतन्य की इस अद्भूत और चमत्कारिक घटना को पढ़कर जो भी मैंने अपने आप में एहसास किया उसे शब्दशः अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता । ऐसे आध्यात्मिक जीवंत गुरुवर और गुरुमां के श्रीचरणों में कोटि-कोटि वंदन और नमन। "हिमालय का समर्पण योग भाग-6/124 

श्री गुरूशक्तिधाम

किसी जीवंत गुरु ने , किसी जीवंत माध्यम ने अपने जीवनकाल में अपनी स्थिति मूर्ति में संकल्प के रूप में स्थापित की हुई है । जैसे मुझे आत्मसाक्षात्कार मिला , जैसी मोक्ष की स्थिति मुझे मेरे जीवनकाल में प्राप्त हुई , वोही मोक्ष की स्थिति जो इच्छा करे उसे प्राप्त होनी चाहिए ये संकल्प उसके भीतर डाला गया है तो उसके सामने आमसाक्षात्कार मिलता है और मिल सकता है । ये अद्वितीय है । ये ना कभी था , ना कभी हुआ है । . . . परमपूज्य स्वामीजी गुरुपुर्णिमा - २०१६

आध्यात्मिक ज्ञान तो अनुभूतियों पर आधारित

आध्यात्मिक ज्ञान तो अनुभूतियों पर आधारित होता है। जैसे-जैसे अनुभूतियाँ बढती जाएँगी, ज्ञान भी बढता जाएगा। ये अनुभूतियाँ शिष्य के समर्पण पर आधारित होती हैं। वह जितना समर्पित होता जाएगा, वह उतनी ही अनुभूतियाँ पाता जाएगा। इन सबके लिए जीवंत गुरु का सान्निध्य अत्यंत आवश्यक होता है।  हि.स.यो.३/२०३

समर्पण ध्यान लोगों को सीखाना भी एक बहुत ही उम्दा सेवा का कार्य

समर्पण ध्यान लोगों को सीखाना भी एक बहुत ही उम्दा सेवा का कार्य है। भौतिक रूप से की गई सेवा कुछ समय तक रहती है, जबकि समर्पण ध्यान से हर एक मानव को शाश्वत स्वरूप प्राप्त होता है जिससे उसे अपने जीवन में किसी की मदद की आवश्यकता नहीं रहती है। वह खुद अपने आप में सक्षम हो जाता है। दया और करूणा के बारे में विस्तृत रूप से समझाते हुए पू.स्वामीजी ने कहा कि करूणा दया का विशाल स्वरूप है , वैश्विक स्वरूप है। परमेश्वर सदैव हमारे उपर करूणा बरसाता है। दया की जाती है, जबकि करूणा बरसती है। दया मंझिल नहीं है , बल्कि करूणा तक पहुँचने की सीढ़ी है। करूणा का स्वरूप विशाल है और उसके माध्यम बनने के लिए पूर्ण संतुलित होने की आवश्यकता है। *मधुचैतन्य अप्रैल २००६/३१*

साधना का धन

 अब तो गुरुदेव तक हम सब पहुँचे है , हम सभीकी साधना है । प्रत्तेक आत्मा ने अपने पूर्वजन्म में साधना की है फिर चाहे उसने ब्रह्मचारी रहकर साधना की , उसने सन्यासी बनकर साधना की , उसने गृहस्थ रहकर साधना की , किसी भी तरहसे साधना की , साधना का धन उसके पास था , साधना की संपदा उसके साथ थी । तभी वो  यहाँ तक पहुँच सका है । . . . वंदनीय पूज्या गुरुमाँ जी   गुरुपुर्णिमा २०१६

प्रत्येक आत्मा परमात्मा का अंश

" प्रत्येक आत्मा परमात्मा का अंश होती  है और क्या अच्छा है और क्या अच्छा नहीं है, इसका ग्यान प्रत्येक आत्मा को  होता  ही है। कौन सा कर्म करना योग्य है, कौन सा कर्म करना अयोग्य है, इसका ग्यान भी प्रत्येक आत्मा को होता ही है। लेकिन मनुष्य, जन्म के बाद अपने शरीर के प्रभाव में इतना आ जाता है कि वह अपने-आपको शरीर ही समझने लग जाता है और फीर वह शरीर के भाव में आकर ही सारे कर्म करता है। शरीर द्वारा किए गए कर्म पर माया, मोह, रिश्तेदार, संबंधी सभी तो प्रभाव डालते हैं और शरीर के प्रभाव में आकर ऐसे कार्य करता है, जो उसने नहीं करना चाहिए और बाद में उसके फल आने पर फछतावा करता है।" हि.स.योग, 6-पेज. 369.

पाना और देना, एक ही सिक्के के दो पहलू

पाना और देना, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। पाने की इच्छा रखोगे, तो भी मिलेगा और देने की इच्छा रखोगे, तो भी मिलेगा। पर देने की इच्छा नहीं रहेगी, तो दे नहीं पाओगे। देने की इच्छा से दो बातें होती हैं- पाया भी जाता है और दिया भी जाता है।...।। मेरी देने की इच्छा के कारण ही मुझे अनायास ही मिल जाता है। पाना नहीं पडा है, मिल गया है।  हि.स.यो.३/२३२

ऊर्जा केंद्रों

" इन नकारात्मक शक्तियों के केंद्रों के ऊपर जाने पर सकारात्मक शक्तियों के ऊर्जा केंद्र भी विध्यमान थे।  जब कोई भी मनुष्य सकारात्मक कार्य करता है, तो इन सकारात्मक ऊर्जा केंद्रों से सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है। अपने जीवनकाल में  जिन आत्माओं ने सकारात्मक कार्य किए है, उन्हीं सभी आत्माओं की सकारात्मक ऊर्जा के केंद्र बन गए,  इन ऊर्जा केंद्रों की संख्या भी अच्छी है। बस् इन तक पहुँचना थोडा कठिन है। इन तक किसी भी मनुष्य का अकेला फहुँचना थोडा कठिन है, लेकिन अगर सामुहीकता में प्रयत्न किए जाए तो यह संभव हो सखता है। कोई भी मनुष्य कोई भी सकारात्मक कार्य करता है, तो इन केंद्रों से उसे अधिक सकारात्मक कार्य करने की ऊर्जा मिलना प्रारंभ हो जाती है। और फिर उस मनुष्य से और अधिक सकारात्मक कार्य होना प्रारंभ हो जाते हैं। ये सकारात्मक ऊर्जा केंद्र भी सामूहिक प्रयासों से नीर्माण हुए हैँ।" " मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि मनुष्य तो देव और दानव दोनों के ही गुण लेकर निर्माण हुआ है, अगर मनुष्य को दानवों की संगत मिल जाए तो दानव हो जाता है, देव की संगत मिल जाए तो देव हो जाता है;  वह किनके साथ रहता

श्री गुरूशक्तिधाम का उद्देश्य

अब गुरूतत्व ने इसमें से भी मार्ग निकाला है। और यह गुरूशक्तिधाम की प्रेरणा हुई कि एक सद्गुरु अपनी शक्तीयाँ शरीर छोड़ने के पूर्व किसी स्थान पर स्थापित करें। और विश्व का कोई भी व्यक्ति , फिर वह किसी भी जाती , धर्म , देश , भाषा , रंग , या लिंग का हो , वह उस मूर्ति से आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर सके।

प्रथम श्री गूरूशक्तिधाम , समर्पण आश्रम , दांडी

इसे बनाने में बडी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। पत्थर लेने मुझे स्वयं 'मकराना' जाना पड़ता था। जमीन की समस्या , बाँधकामा की समस्या , खूब समस्याओं का सामना करके उस समय के पुराने साधकों के प्रयास से आज यह खड़ा हो सका है। तब १२साल पहले साधकों की संख्या भी सैकड़ों में ही थी। इसके निर्माण में 'गुजरात' के साधक और 'साधिकाओं का 'भाव' और  महत्वपूर्ण योगदान है। और आज की पिढी उसका लाभ ले पा रही है। उनसे जैसा भी बन पाया , उन्होंने बना दिया था। इसमें सबसे बड़ी बात थी श्री मंगलमूर्ति की संपूर्ण भाव के साथ की गई स्थापना और इसी भावपूर्ण स्थापना के कारण ही आज विश्वभर में समर्पण परिवार हो सका है। यह कहे तो अतिशयोक्ती नहीं होगी कि यहीं पावर हाऊस है जहाँ से विश्वभर में ऊर्जा शक्ति प्रवाहित की जा रही है।  *आत्मेश्वर(आत्मा ही ईश्वर है)  पृष्ठ:१८*

सद्गुरू की मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा सद्गुरू के ही द्वारा

भारतीय संस्कृती में गुरु को देवतुल्य माना जाता है। उनके देहत्याग के बाद उनकी मूर्ति तो बनाई जाती है लेकिन *वह प्रतीक होती है , जिवंत नही होती।* अधिकांशतया प्रतिमा का बाह्य रूप सद्गुरू का होता है और उसकी *प्राण-प्रतिष्ठा* किसी और साधु ने की होती है। *यह विसंगत है।*, इससे *प्राण ऊर्जा में फर्क रहता है।* आत्मसाक्षात्कारी संतों और सद्गुरूओं ने अपनी मूर्तियों में *स्वयं ही प्राण-प्रतिष्ठा की होती तो वे मूर्तियाँ चैतन्य की दृष्टि से अप्रतिम होतीं।*

अनुभूति क्या है ?

मेने गुरु ने मुझे इस कार्य करने के लिए अधिकूत किया है और अगर आगे भी तू ही यह अपना धर चलाए तो मैं इस अनुभूति को प्रसाद के रूप में समाज में जाकर बाँट सकता हूँ। प्रथम यह अनुभूति क्या है। यह अनुभव कर ले। इससे  क्या बाँटने वाला हूँ यह मालूम हो सकता है। यह एक अनुभूति ने ही मेरे जीवन की दिशा ही बदल दी है। जो परमात्मा को बाहर खोजता रहता था, उस परमात्मा को भीतर ही पा लिया है । और परमात्मा को पा लिया , यह समाधान भी जीवन में  प्राप्त हो गया है। इस प्रकार अनुभूति को प्राप्त कर साधनारत कई ऋषि , मुनि हिमालय में हैं  लेकिन वे पाने के ही अधिकारी थे । इसलिए वे अनुभूति को पा लिए है लेकिन वे अनुभूति देने के लिए अधिकूत नहीं हैं। इसलिए यह अनुभूति दूसरे को नहीं करा सकते हैं। भाग ६ - १३५/१३६

दो बाते सदैव याद रखने का संदेश दिया प.पू.स्वामीजी ने।

१) किसी भी सिरे को पकडकर मत रखो।स्वीकार करना सीख लो। स्वीकार करने से भी आप को समाधान मिलेगा। और मन शांत रखो।  २) अपनी आध्यात्मिक स्थिति अच्छी कर लो। भीतर की शांति को प्राप्त कर लोगे। जो चाहोगे वह मिलेगा।  *मधुचैतन्य अक्टू.२००९/२६*

सब गुरुशक्तियों के द्धारा निच्छित

यह सब  गुरुशक्तियों के द्धारा निच्छित है। मनुष्य के शरीर की सिमाएँ हैं जो मनुष्य ने ही तैयार करके रखी हैं। भाषा , देश , धर्म , रग , जाती ये सब आत्मा के क्षेत्र में नहीं होती हैं। आत्मा इन सबसे ही मुक्त है। आत्मा का अपना अलग ही विश्व है। वह इस विश्व से अलग है। वह विश्व का माध्यम मेरे गुरयदेव ने मुझे बनाया है। कितना व्यापक दृष्टिकोण है और कितना व्यापक क्षेत्र है ! आज यह सब असंभव-सा लग रहा है लेकिन यही सब कल संभव होगा। ये सब बातें में तुझे इसलिए बता रहा हूँ ताकि तू अपनी मानसिक तैयारी करके रख और जो मुझे लगता है , वह में तुझे बताता हूँ । यह अधिकुत शब्द छोटा-सा है। लेकिन एक शब्द में गहन अर्थ छुपा हुआ है भाग ६ - १३७  गुरुशक्तियों

सूर्योदय के महत्व

*॥ सूर्य स्वामी नमो नमः॥ * सूर्योदय के महत्व को बताते हुए पू.स्वामीजी ने बताया कि इस समय उर्जा उर्ध्वगामी होती है। सोर्योदय के १५ मिनिट पहले और १५मिनिट बाद तक ध्यान करने से अद्भूत लाभ होते है। मधुचैतन्य अक्टू.२००९/२६

श्री गुरुशक्ति धाम

समर्पण ध्यानयोग के प्रणेता सद्गुरू श्री शिवकृपानंद स्वामीजी ने वर्ष २००७ से *प्रतिवर्ष*समर्पण आश्रम , दांडी में *४५ दिवसीय गहन ध्यान अनुष्ठान* करने की शुरुआत की। इन ४५ दिनों में पूज्य स्वामीजी *एकांत में रहते हैं और वे श्री मंगलमूर्ति की प्राण- प्रतिष्ठा करते हैं।* अब तक कुल बारह  मंगलमूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा संपन्न हो चुकी है और विश्व के अलग अलग स्थानों पर जहाँ ये मंगलमूर्तियाँ स्थाई रूप से विराजमान होंगी , वे वास्तु अर्थात *श्री गुरुशक्तिधाम* अब निर्मित होने जा रहे हैं।

हिन्दू धर्म नहीं है,हिन्दू संस्कृति है

वास्तव में धर्म एक सीमा होती है | हिन्दू धर्म की कोई सीमा नहीं है | यह इसलिए है की हिन्दू धर्म नहीं है,हिन्दू संस्कृति है जो प्रकृति के साथ जुडी हुई है | यह भारतीय संस्कृति है जिसमें अनेक देवता हैं ,अनेक गुरु हैं, ध्यान की अनेक पद्धतियाँ है ,योगासन है,प्राणायाम है,ध्यान है ,शास्त्रीय संगीत है ,वादन है ,नृत्य है ,शास्त्र है,पशु देवता है ,वृक्ष देवता है,नदी देवता है,समुद्र,सूर्य,चंद्र देवता है | ये सभी तो प्रकृति से जुड़े हैं | इसलिए हिन्दू संस्कृति को हिन्दू धर्म के दायरे में बाँधा नहीं जा सकता है | इस संस्कृति में तो प्रत्येक मनुष्य मात्र का विचार किया गया है | सारे विश्व के प्राणिमात्र के लिए सोचा गया है | और धर्म कहलाने के लिए न इसके पास कोई एक देवता है और न एक निश्चित ग्रन्थ | कोई भी निश्चित सीमा नहीं है | यह तो खुली किताब है जो आदिकाल से लिखी जा रही है और आजतक बंद नहीं हुई है | आज भी कोई गुरु एके उसमे चार बातें जोड़ सकता है | इसमें पूजा के माध्यम से प्रकृति से जुड़ना सिखाया जाता है | पर्वत की पूजा ,नदी की पूजा,पेड़ की पूजा ,चंद्र,सूर्य,गाय,बन्दर की पूजा वगैरह - वगैरह | यानि स

समर्पण संस्कार

इस मार्ग में कुछ भी बाहरी उपदेश नहीं हैं। क्या करो, क्या ना करो, कुछ भी नही है। इसमें सीधे मनुष्य की आत्मा को ही जागृत कर दिया जाता है। और आत्मा को जागृत रखने के लिए साधना करने को कहा जाता है। बशर्ते वह मनुष्य इस संस्कार को ग्रहण करने के लिए राजी हो। यह संस्कार 'जबरदस्ती' किसी को भी दिया नहीं जा सकता है। संस्कार को पाना मनुष्य का अपना निर्णय होता है। 'समर्पण संस्कार' की अनुभूति प्राप्त होने के बाद मनुष्य अपनी उपासना पध्दती को समझ सकता है। आत्मेश्वर(आत्मा ही ईश्वर है) पृष्ठ:३१

"शिर्डी"- मोक्ष का महाद्वार

इतने बड़े संसार में अपने 'माध्यम'को चुनना बड़ा ही कठिन कार्य है । - - - अगर उपरोक्त स्थिति जैसी आपके आत्मा की स्थिति है तो एकमात्र उपाय है - -  "जीवंत समाधीस्त गुरु "को र्हदय से प्रार्थना करना और प्रार्थना भी लाखों की सामूहिकता में रहकर करना । और ऐसा स्वर्णिम अवसर "श्री साईबाबा समर्पण ध्यान महाशीबीर "के रूप में आपको मिल रहा है । क्योँकि अब तक श्री साईबाबा की समाधि के पास "भौतिक बाते "बहुत माँग ली । इस बार "आत्मसाक्षात्कार "की इच्छा कीजिए ताकि बाद में जीवन में माँगने के लिए कुछ  बाकी ही न  रह जाए । इसीलिए शिर्डी "मोक्ष का द्वार "है , लेकिन आपको ही "प्रार्थना "करके वह द्वार खोलना होगा और अनुभूति के जगत में प्रवेश करना होगा ।         पूज्य स्वामीजी मधुचैतन्य -अ.म.जून २०१३

श्री गुरुशक्तिधाम

यह स्थान शक्तिधाम बने , व्यक्तिधाम नहीं , यह मेरे गुरुओं की इच्छा है। इस शक्तिधाम की प्रेरणा जैसे ही गुरूशक्तियों ने मुझे दी , मैंने प्रार्थना की , "गुरुदेव , शक्तिधाम में आपकी प्रतिमा लगाने की अनुमति प्रदान करें।" उन्होंने समझाया , "मेरी प्रतिमा में तू मेरे प्राण डाल सकता है क्या ? नहीं। फिर मेरी प्रतिमा में तेरे प्राण कैसे डालेगा? और यह विसंगती होगी। मै तेरे करीब हूँ। हाँ ,अगर यह स्थान तेरे लिए बन रहा है , तो मेरी प्रतिमा सही है। " मैंने गुरुदेव को  कहाँ , "वह स्थान मैंने हृदय में बना लिया है। और बाहर के स्थान की मुझे आवश्यकता नहीं है। मैं आँखे बंद कर लेता हूँ , आपके दर्शन मुझे हो जाते हैं।" "यह शक्तिधाम तू आनेवाले भविष्य के साधकों के लिए बना रहा है। वे तेरे करीब हैं , मुझसे दूर हैं। इसलिए शक्तियों का माध्यम जितने पास का हो , उतना पकड़ना आसान लगता है। इसलिए साधकों को गुरू करीब का लगता है। यह आज की नहीं , भविष्य की भी आवश्यकता है। हमें सदैव अपना उद्देश्य पवित्र व बहुजनहिताय रखना चाहिए। इसलिए पवित्र उद्देश्य से कार्य कर और तू तेरी प्रतिमा में मेरी

मैं तुम्हें लेने आया हूँ। मुझे तुम्हारे गुरु ने भेजा है।

मैं तुम्हें लेने आया हूँ। मुझे तुम्हारे गुरु ने भेजा है। तुम रोज ध्यानसाधना करते थे , वह मुझे मालूम था कि तुम एक अवस्था तक पहुँचकर अटक गए हो। मैं जाना गया था , तुम तुम्हारे ही सम्मोहन के वश हो गए हो। अगर ऐसा रहा तो यहीं तक अटककर रह जाओगे। तुम्हें जीवन में बहुत आगे जाना है। यह गाँव तुम्हारा कार्यक्षेत्र नहीं है। तुम तो इसी गाँव को पकड़कर बैठ गए ! मैं हिमालय के उस उच्च शिखर पर ध्यानस्थ रहा हूँ। इस गाँव के बारे में मुझे भी जानकारी है , पर मैं यहाँ कभी नहीं आया। मैं तुम्हें यब बताऊँ , इस दुविधा में था , तो तुम्हारे ही गुरुदेव का आदेश आया कि वह चला था मुझ तक पहुँचने और वह अटक ही गया है , उसे बाहर निकालो। इसीलिए मैं तुम्हें लेने आया हूँ। तुम्हें जंगलों में जाना है। वे तुम्हारे गुरु तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं। चलो जल्दी , तुम्हें वहाँ भेजकर मुझे भी वापस जाना है। मैंने कहा , एक दिन रुक जाते हैं। उन गाँववालों से मिलकर चलते हैं। मैंने उन्हें एक दिन रुकने की विनती की। उन्होंने कहा , बच्चे , यही मोह है। भाग - २ - १९८

परमात्मा के चैतन्य का अनुभव

एक बार एक स्थान पर परमात्मा के चैतन्य का अनुभव करना आ गया तो फिर विश्व मे कही भी परमात्मा को अनुभव कर सकते है। पर यह सरल लगने वाली प्रक्रिया बड़ी कठिन है। और वह सरल प्रक्रिया इसलिए कठिन लगती है क्यूँकि हम हीं कठिन है। हम रहते कही है और सोचते कहि है। यह एक विसंगत जीवन है। जीवन में रहने और होने मे कोई ताल मेल ही नहीं है। जब शरीर और चित का ताल मेल हो जाए और हम  चित से जहाँ पर है वही पर शरीर से भी रहे तो ध्यान ख़ुद- ब- ख़ुद लग जायेगा।  बाबा स्वामी HSY 1 pg 324

आत्मशांति और सुरक्षितता सबसे महंगी वस्तु

आज विश्व में आत्मशांति और सुरक्षितता सबसे महंगी वस्तु है । आज मनुष्य पैसे के पीछे दौड़ रहा है और दौड़ा ' सुख ' के लिए था , यह भी भूल गया और आज ' सुख ' तो पीछे छूट गया , पर वह बहुत आगे चला गया और जीवन के अंतिम क्षणों में ही जान पाता है , जिस पैसे और संपत्ति के लिए जीवन भर दौड़ा , आज यह सब यहाँ ही छोड़कर अकेले ही जाना पड़ रहा है । पर तब तक बहुत ही देर हो चुकी होती है । याद रखो , आपके जीवन का प्रत्येक क्षण जियो , यह ' क्षण ' आपके जीवन में फिर कभी नहीं आएगा । आपका गया हुआ पैसा तो वापस आ सकता है , पर गया हुआ ' क्षण ' वापस कभी नहीं आएगा । इसलिए , सदैव वतॅमान में रहो और वतॅमान के प्रत्येक क्षण का आनंद लो ।  आत्मेश्वर ( आत्मा ही ईश्वर है ) राष्ट्र का निमाॅण Page No. 44          

सारे संसार में अनुभूति करने के लिए गुरुदेव ने केवल मुझे ही माध्यम के रूप में चुना

इस सारे संसार में अनुभूति करने के लिए गुरुदेव ने केवल  मुझे ही माध्यम के रूप में चुना है । गुरुदेव एक ही माध्यम को चुन सकते थे। एक ही को अधिकृत कर सकते थे। अधिकृत का अर्थ बड़ा विशाल है। अधिकृत किया यानी उन्होंने अपने जीवन मैं प्राप्त सारी शक्तियाँ अपने माध्यम में डाल दी हैं। इस विश्व में एक बिरला मनुष्य हूँ जो गुरुदेव द्धारा अधिकृत हूँ । भाग ६ - १३५

हिमालय का एक आध्यात्मिक आकर्षण

" हिमालय का एक आध्यात्मिक आकर्षण है। गुरुदेव कह रहे थे की हिमालय में एक आध्यात्मिक स्थिति स्थायी रूप में स्थापित हीं है।  जब कोई उस आध्यात्मिक स्थिति की इच्छा करता है, तो आध्यात्मिक स्थिति बस उसे अपनी ओर खिंच लेती है। " बाबा स्वामी HSY 2 pg 79

प्रार्थना

      जब भी कुछ भी , कोई भी बात , कोई भी व्यक्ति के कारण आपको लगे की आप असंतुलित हो रहे है तो कुछ भी नही करना है , आपको उसमें से चित्त निकालने के लिए केवल एक प्रार्थना करनी है । एक बहुत अच्छी -सी सकारात्मक प्रार्थना  - "हे गुरुदेव , इस व्यक्ति को सदबुद्धि दो , उसको अच्छा व्यवहार दो , व्यवहार अच्छा करना सिखाओ और मेरा चित्त जो उसमेँ गया है , मेरे चित्त में जो विचार बार -बार उसीके आ रहे है , वे विचार आप ही दूर कर सकते है । आप दूर कर दीजिए । " बस इतनी प्रार्थना करो ।  वंदनीय पूज्या गुरुमाँ गुरुपुर्नीमा - २०१३    

पतंग

पतंग आकाश में कितनी ही ऊँचाई पर जाए तो भी उसे एक पतले धागे का सहारा होता है जिससे वह पतंग भटक नहीं जाती है। और धागे के सहारे वापस अपने स्थान पर आ जाती है। पतंग के जीवन में डोर का बड़ा ही महत्त्व है , वैसे ही मेरे जीवन में तेरा महत्त्व है। जब भी लगे मैं अधिक ऊँचा जा रहा हूँ, मुझे नीचे ला देना। अधिकुत माध्यम बनने के बाद सतत गुरुशक्तियों से चैतन्य का प्रवाह आते रहता है। उस प्रवाह में रहकर ध्यान में न जाते हुए कार्य करना कठीण है। सदैव याद रखना , चैतन्य तो गुरु का प्रसाद है। इस बाँटना है और बाँटना के लिए ही बल मिल रहा है, इसे खाते नहीं बैठना है। इसलिए मेरी ध्यान की स्थिति का सदैव ध्यान रख। ध्यान में स्थिति यह हिती है कि हिमालय के कैलाश पर्वत पर पहुँच गए, यह अनुभव होता है। और वहाँ पहुँच जाने के बाद वापस आने की सुध भी नहीं रहती है क्योंकि शरीर का नियंत्रण पूर्ण ही समाप्त हो जाता है। जब शरीर ही नहीं है तो वापस क्या जाना! वहाँ के वातावरण में जाकर यह याद भी नहीं रहता कि अभी यहाँ रहने का समय नहीं आया है , हमें वापस भी जाना है। मुझे इस स्थान पर तेरे मदद की आवश्यकता है। जब लगे कि ऐसे स्थान पर मेरी

धर्म और अध्यात्म

लोग धर्म और अध्यात्म को एक ही समझते हैं। वास्तव में ऐसा नहीं है। धर्म सीढ़ी है तो अध्यात्म 'मकान' है, जहाँ प्रत्येक को अपने-अपने उपासना पध्दती के द्वारा पहुँचना होता है। उपासना पध्दति मार्ग है लेकिन आध्यात्म मंजिल है। प्रत्येक आध्यात्मिक व्यक्ति किसी न किसी उपासना पध्दति का सहारा लेकर ही वहाँ तक पहुँचा होता है। हमारा 'अध्यात्म' से आशय आत्मिक ज्ञान से है। धार्मिक व्यक्ति तो समाज में हजारों मिल जाएँगे लेकिन 'आध्यात्मिक व्यक्ति' कम ही हो पाते है। कोई भी *कट्टर धार्मिक व्यक्ति कभी भी आध्यात्मिक स्थिति को नहीं पा सकता है क्योंकि वह तो सीढ़ी को ही पकड़कर बैठ गया।* जो सीढ़ी पर ही बैठ गया वह ऊपरी मंजिल पर कैसे पहुँचेगा? धार्मिक व्यक्ति आगे चलकर आध्यात्मिक व्यक्ति हो सकता है पर कोई आध्यात्मिक व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता है।  *आत्मेश्वर(आत्मा ही ईश्वर है) पृष्ठ:३२*

बिना गुरु के आध्यात्मिक प्रगती संभव ही नही

बिना   गुरु   के   आध्यात्मिक   प्रगती   संभव   ही   नही   है ।  यह   एक   जन्म   में    भी   संभव   नही   है । यह   तो   आत्मा   की   क्रमबद्ध   प्रगती   से   ही   संभव   है । एक   जन्म   में   पुण्यकर्म   घटित   होते   है । अगले   जनम   में   शुद्ध   इच्छा   होती   है । उसके   अगले   जनम   में     सद् गुरु   मिलते   है  । उसके   अगले   जनम   में     सद् गुरु   से   अध्यात्म   का   बीज   प्राप्त   होता   है ।  और   उसके   अगले   जनम   में   वातावरण   प्राप्त   होता   है । और   उसके   अगले   जनम   में   संगत   प्राप्त   होती   है । और   उसके   अगले   जनम  में   प्रगती   होती   है । और उसके   अगले   जनम   में   एक   शून्य   की   अवस्था   प्राप्त   होती   है ।  और   वही   जन्म   मनुष्य   का   आखिरी   जन्म   होता   है   क्योकि   मोक्ष   की   अवस्था   उसी   जन्म   में   प्राप्त   हो   जाति   है ।.... प..पू..स्वामीजी ही..स..योग  ५ प्रुश्ठ..२८

रक्षक वर्ष

*इस रक्षक वर्ष में श्री साईबाबा संस्थान, शिर्डी के द्वारा दिनांक २३-४- २०१८ से ३०-४-२०१८ तक एक भव्य समर्पण ध्यान संस्कार का महाशीबीर का आयोजन किया गया है।* आपको क्या करना है, इन दिनों में आप *पुलिस और मिलिट्री के केंद्रो पर ट्रेनिंग सेंटर पर जाएँ* और उन्हें इस महाशिबिर को 'यु ट्युब' के माध्यम से उनके ही स्थानों पर शाम को *'७ से ९'* केवल दिखाकर इसमें शामिल करें। अनुभूति का यह पवित्र संस्कार इन 'रक्षकों' को उनके स्थान पर रहकर ही प्राप्त हो जाएगा और उन्हें कोई भी शारीरिक आसन या व्यायाम नहीं करना है , केवल शांत चित्त होकर , केवल आठ दिन , केवल २घंटा बैठना मात्र है। इन आठ दिन के बाद उनका जीवन ही बदल जाएगा। इस वर्ष का सबसे बड़ा 'गुरूकार्य' का अवसर आपको *'रक्षक शिबिर'* करके प्राप्त हो रहा है। आप सभी उसका लाभ अवश्य लें। आप सभी को खूब-खूब आशीर्वाद!  आपक अपना  बाबा स्वामी  ११/१/२०१८ note: 'aura' क्या है , यह 'रक्षक' को समझाने के लिए ऑरा की 'रिपोर्ट' अवश्य लेकर जाएँ। *आत्मेश्वर(आत्मा ही ईश्वर है) पृष्ठ:२४*

वास्तव में, सुख यानी क्या,?

वास्तव में, सुख यानी क्या,? यह आत्म सुख की खोज ही फिर व्यक्ति को किसी जीवंत(सजीव)  गुरु के सान्निध्य में ले जाती है। और फिर उसके सान्निध्य में जब अनुभूति होती है, तब ही वह जान पाता है की आत्मसुख क्या है। और फिर बुद्धि भी गिर जाती है और वह परमसुख का अनुभव कर पाता है, उसका सारा विश्व वही पर सीमित हो जाता है। बाबा स्वामी HSY 2 pg 97

आत्मज्ञान ही सत्यज्ञान

इस जगत में केवल’आत्मज्ञान’ ही सत्यज्ञान है। मनुष्य इतना भ्रमित हो गया है कि इस आत्मा की अनुभूति के ज्ञान को ज्ञान समजने के बजाय पुस्तक के ज्ञान को ज्ञान समज रहा है। वह यह नहीं जानता की पुस्तक का ज्ञान केवल जानकारी मात्र है। जो हो चुका है, उसकी जानकारी। जानकारी कभी अनुभूति नहीं करॉ सकती। ‘अनुभूति’ ही एकमात्र ज्ञान है जो पुस्तक से कभी प्राप्त नहीं हो सकती है।  बाबा स्वामी HSY1 pg 340

नीसर्ग का गुण

१] निसर्ग का पहला गुण है "निर्विचारिता "।..मनुष्य जैसे जैसे निसर्ग से समरस होता है , वैसे -वैसे निसर्ग मनुष्य के शरीर का विचार रूपी कचरा पहले दूर करता है ।  २] निसर्ग का दूसरा गुण है "समानता "।..निसर्ग किसी के साथ भी भेदभाव नही करता है । निसर्ग मनुष्य को केवल मनुष्य ही मानता है ।  ३] नीसर्ग का तीसरा गुण है - अपनी एक निश्चित सीमा में ही रहना । इसको इस तरह से समझा जा सकता है --एक पानीका झरना है । वह एक निश्चित स्थान पर ही बहेगा ।  ४] निसर्ग का चौथा गुण है -- शक्तियों का विकेंद्रीकरण । निसर्ग के पास जो भी शक्तियाँ विद्यमान होती है , निसर्ग सदैव वह बाँटते रहता है ;शक्तियाँ अपने पास नही रखता । . . . . . .   बाबा स्वामी  आत्मेश्वर

श्री गुरुशक्तिधाम आध्यात्मिक महत्व

*१. आत्मसाक्षात्कार और सुरक्षा कवच:* *नए आविष्कार के समान* भविष्य को ध्यान में रखते हुए ये श्री गुरुशक्ति धाम निर्मित हो रहे हैं। *अगले कम से कम आठ सौ सालों तक इनके सान्निध्य में आत्मसाक्षात्कार  प्राप्त किया जा सके, आनेवाले प्रत्येक मनुष्य के आसपास सशक्त आभामंडल का निर्माण हो , उसे ध्यान की उच्चतम आध्यात्मिक स्थिति प्राप्त हो* , इस संकल्प के साथ पूज्य स्वामीजी द्वारा इन मंगलमूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा की गई है। *२. सान्निध्य* प्राचीन समय में मूर्तियों का उपयोग *पूजा-अर्चना के लिए नहीं होता था , सान्निध्य के लिए होता था।* श्रद्धालु सान्निध्य प्राप्त करते थे, *चैतन्य प्राप्त करते थे।* तो उसी परंपरा को समाज में फिर से स्थापित करने के लिए  एक ध्यान-मंदिर की स्थापना की जा रही है जहाँ *पूजा-अर्चना नहीं पर शांति से बैठकर ध्यान कर सकते हैं, चैतन्य का अनुभव कर सकते है , उसे संग्रहित कर सकते है।* पूज्य स्वामीजी समझाते हैं कि हम अगर श्री गुरुशक्तिधाम में प्रवेश करते समय अपने-आप को संतुलित करके, अपने-आप को एक पवित्र आत्मा समझकरके जाते हैं तो *वहाँ स्थापित ऊर्जा और चैतन्य को ग्

महत्व सद्गुरु के शरीर का नहीं है, उनकी आध्यात्मिक स्थिति का होता है |

हम अगर चित के ध्वारा , नामजाप के ध्वारा , मंत्र के ध्वारा , किसी भी तरीके से सद्गुरु जुड़ जाते हैं तो जुड़ने के साथ-साथ हम उनकी स्थिति से भी जुड़ जाते हैं | महत्व सद्गुरु के शरीर का नहीं है, उनकी आध्यात्मिक स्थिति का होता है | हम उनकी आध्यात्मिक स्थिति से जुड़ जाते हैं और फिर वे शरीरभाव से परे होते हैं तो हम भी उनके सानिध्य में अपने-आपको शरीरभाव से परे महसूस करने लग जाते हैं | जब शरीर का भाव ही कम हो गया तो शरीर किस परिस्थिति में से गुजर रहा है , इसका क्या महत्व है ? क्योंकि फिर हम केवल शरीर से परिस्थिति में से निकलते रहते हैं लेकिन हमारा चित उन खराब परिस्थितियों में नहीं होता है तो हमें उन परिस्थितियों का एहसास नहीं होता है | भाग ५

विश्व में शांति आत्मा से

जीवन  में   कितनी  भी   प्रॉब्लेम   आने  दो  , जीवन  में  कितनी  भी  कठिनाइयाँ आने  दो  आप   परमात्मा   को   प्रार्थना   करो - "हे   परमात्मा ,  मुझे   संतुलित   रख ,  मुझे  बेलन्स्ड   रख । ये  सब  परिस्थिती  को  मै   सामना   कर   लूँगा । " तो   अपने   आपको   सशक्त   करो   ना , अपने -आपको   मजबूत   करो ।  विश्व   में   शांति   आत्मा   से   ही   आ   सकती   है , आत्मशांति   के   बिना   विश्वशाँति   संभव  नही  है । पूज्य गुरुदेव महाशिवरात्री २०१५

अहंकार

"अहंकार आ जाने से जहाँ हम एक ओर दूसरों को दुखी करते हैं, यह भी एक प्रकार की हिंसा ही है, वहीं दूसरी ओर अपने-आपको भी असंतुलित कर लेते हैं। मेरे जैन गुरु अहंकार को दर्शक बनकर देखते थे और जानते थे, उसका स्वयं ही निरीक्षण करते थे, यह सब अपने-आपको शरीर से अलग करके ही हो पाता था। अहंकार पर नियंत्रण सतत् साधना से ही संभव हो पाता था,  जितना कार्य करके चित्त को बाहर किया है, उतना ही साधना करके चित्त को भीतर करना होता था। हम एक समय दो दिशाओं में देख ही नहीं सकते हैं। जैसे हम अगर सामने देख रहे हैं तो हमारे पीठ के पीछे क्या हो रहा है, वह हमें पता नहीं चल सकता है क्योंकि हम पीछे नहीं देख रहे हैं। यह ठीक वैसा ही है, जब हम अंतर्मुखी होते हैं तो हमें केवल और केवल हमारे भीतर के ही दोष दिखते हैं, बाहर दूसरे के दोष नहीं दिखते हैं। साधना में चित्त को अंतर्मुखी करके अपने दोष देखना और उन्हीं पर चित्त रखना होता है और जब हम अपने ही दोषों पर चित्त रखते हैं, तो धीरे-धीरे वे दोष दूर होना प्रारंभ हो जाते हैं। अंतर्मुखी होने से दो लाभ हैं-  एक  ओर हमें हमारे दोष दिखते हैं और वे दूर होते हैं।  दूसरा हमार

आत्मसाक्षात्कार

अपनी आत्मा का परिचय यानी आत्मसाक्षात्कार एक जिवंत प्रक्रिया है जो बिना जिवंत गुरू के संभव नहीं है। वे अपनी इच्छाशक्ति से , संकल्प से , स्पर्शमात्र से शिष्य की आत्मजागृति करा सकते हैं। आत्मसाक्षात्कार प्राप्त होने के बाद हमारी आत्मा ही हमारी गुरू बन जाती है। वही हमें जीवन में पल-पल मार्गदर्शन करती रहती है। जो योग्य है , वही होने देती है। जिसे आवश्यक नहीं समझती , नहीं होने देती है। इस प्रकार , आत्मसाक्षात्कार से जीवन का मैनेजमेंट संभव है।

बचपन से आध्यात्मिक बातों में रुचि थी। - बाबा स्वामी

बचपन से आध्यात्मिक बातों में रुचि थी। बचपन से ही घर में भी आध्यत्मिक वातावरण मिला था लेकिन निर्णय लेनी की क्षमता नहीं थी। दूसरा , इस विषय को समझे ऐसा मुझे मेरे नानी के बाद कोई नहीं मिला , जिसने सामने मैं दिल खोलकर बात कर सकूँ। मैनें बात करने की इच्छा भी की हो पर बात निकल ही नहीं पाती थी। नानी थी जिसे बचपन में अपनी मन की सब बातें , वे अच्छी हों या बुरी , सब बताता था। मन कोई भी प्रश्न हो , वह बताता था। नानी भी जितना उसे समझता था। समझाती थी । लेकिन वह भी खोज ही रही थी। एक तो मुझे समय देने के लिए किसी के पास समय ही नहीं था , नानी ही थी जो समय देती थी। भीतर बात निकलने में समय लगता है। थोड़े देर किसी के साथ बैठकर बातें करने से बात निकलती नहीं है। मेरे जीवन में नानी कम ही समय रही लेकिन जितने समय रही उसने मुझे खूब समय दिया और उसे के कारण मेरे अंतरंग संबंध मेरे नानी के साथ जुड़ गए थे भाग - ६ - १३४

सद्गुरु की ऊर्जाशक्ति

जो आत्माएँ माध्यम बनकर आती हैं , वे अपने साथ अपार ऊर्जाशक्ति लाती हैं परंतु उनके आसपास रहने वाले भी उन्हें कुछ प्रतिशत ही जान पाते हैं। संपूर्ण तो उन्हें उनके जीवनकाल के बाद ही जाना जाता है। बहुत कम आत्माए वह ऊर्जा उनसे ग्रहण कर पाती हैं। और यह चक्र भी युगों युगों से चला आ रहा है। बाबा स्वामी

श्री गूरूशक्ति धाम

यह स्थान शक्तिधाम बने , व्यक्तिधाम नहीं , यह मेरे गुरुओं की इच्छा है। इस शक्तिधाम की प्रेरणा जैसे ही गुरूशक्तियों ने मुझे दी , मैंने प्रार्थना की , "गुरुदेव , शक्तिधाम में आपकी प्रतिमा लगाने की अनुमति प्रदान करें।" उन्होंने समझाया , "मेरी प्रतिमा में तू मेरे प्राण डाल सकता है क्या ? नहीं। फिर मेरी प्रतिमा में तेरे प्राण कैसे डालेगा? और यह विसंगती होगी। मै तेरे करीब हूँ। हाँ ,अगर यह स्थान तेरे लिए बन रहा है , तो मेरी प्रतिमा सही है। " मैंने गुरुदेव को  कहाँ , "वह स्थान मैंने हृदय में बना लिया है। और बाहर के स्थान की मुझे आवश्यकता नहीं है। मैं आँखे बंद कर लेता हूँ , आपके दर्शन मुझे हो जाते हैं।" "यह शक्तिधाम तू आनेवाले भविष्य के साधकों के लिए बना रहा है। वे तेरे करीब हैं , मुझसे दूर हैं। इसलिए शक्तियों का माध्यम जितने पास का हो , उतना पकड़ना आसान लगता है। इसलिए साधकों को गुरू करीब का लगता है। यह आज की नहीं , भविष्य की भी आवश्यकता है। हमें सदैव अपना उद्देश्य पवित्र व बहुजनहिताय रखना चाहिए। इसलिए पवित्र उद्देश्य से कार्य कर और तू तेरी प्रतिमा में मेरी

पद का प्रभाव

सभी पुण्यात्माओं को  मेरा नमस्कार........          जब किसी साधक को गुरूकृपा में समर्पण परिवार में कोई 'पद' मिलता है , कोई पोस्ट मिलती है , तो उस साधक की 'साधना' पर ,आध्यात्मिक स्थिति पर प्रभाव पड़ता है। यह प्रभाव तीन प्रकार से पड़ता है। १) _सकारात्मक प्रभाव_ : वह इस पद को गुरूकार्य का 'सुअवसर' समझता है, गुरूकृपा समझता है और पद को गुरूप्रसाद समझकर ग्रहण करता है। और गुरू के श्रीचरणों में चित्त रखकर सदैव कार्यरत रहता है और ऐसे साधक की 'साधना' पद प्राप्त होने के बाद अधिक होने लगती है और गुरूकार्य के कारण गुरू पर चित्त रखने का फायदा उसे होता है। और ऐसे साधक की आध्यात्मिक स्थिति और अच्छी हो जाती है। ऐसे साधक उच्च कोटि के पदाधिकारी आदर्श होते है , पर बहुत विरले ही होते हैं। इनका चित्त गुरूकार्य में होता है। ये गुरूकार्य को 'कार्यगुरू' नहीं होने देते हैं। इनके व्यवहार में गुरू को प्रधानता रहती है। कार्य तो एक माध्यम है , सेवा का यह भाव सदैव होता है। २) _*सामान्य प्रभाव :*_ इस साधक पर पद का प्रभाव नहीं होता है। वे पहिले जैसे थे , वे वैसे ह

ध्यान के मुहूर्त निकालने की आवश्यकता नहीं है।

ध्यान के मुहूर्त निकालने की आवश्यकता नहीं है। आप जिस परिस्थिती में हो , जहाँ भी हो , जैसे भी हो , ध्यान की शुरुआत कर दो। भले ही ध्यान न लगे , *३०मीनट ध्यान को समय अवश्य दो। ध्यान लगे या न लगे यह तुम्हारा क्षेत्र नहीं है।* पृष्ठ:१८ *आत्मेश्वर*(आत्मा ही ईश्वर है)

जब बांन्धकाम चल रहा है तभी सहयोग की आवश्यकता

जब बांन्धकाम चल रहा है तभी सहयोग की आवश्यकता होती है और सहयोग करने का अवसर भी उसी पीढी को मीलता है जीनके जीवन काल मे निर्माण कार्य होता है गुरूशक्तीयो का उद्देश केवल धन एकत्र करना नही है एक पवीत्र स्थान के साथ लोगो को जोडना है गुरूशक्तीयो का कार्य धन के अभाव मे न कभी रुका है और न कभी रुकेगा वह चलते रास्ते मनुष्य को भी माध्यम बना लेगी आप सभी को सहयोग करने का अभी ही अवसर है यह अवसर मत चुके आप सभी को खुब खुब आशीेवाद  आपका बाबा स्वामी

गुरू ही परमात्मा

"हमें जीवन में जो भी शिक्षा देता है , उसे ही गुरू मानते हैं। वास्तव में , गुरू तो जीवन में एक ही बार आते हैं। जो गुरू आपको आत्मसाक्षात्कार दे सके , जो आपकी आत्मा को जन्म दे सके , वहीं गुरू होते हैं। जब मनुष्य की एक ही आत्मा है , तो उसे जन्म देने वाला एक ही होना चाहिए। वास्तव में एक ही होता है , लेकिन उस आत्मा के गुरू तक पहुँचने के लिए शरीर को कई गुरू करना होते हैं।" "गुरू से आत्मा को अनुभूति होती है , इसलिए साधक अपने गुरू को ही परमात्मा मानते हैं , क्योंकि गुरू को ही परमात्मा मानने से हमारी गुणग्राहकता , हमारी रिसिव्हींग , हमारी ग्रहण करने की क्षमता सर्वाधिक हो जाती हैं। वास्तव में , गुरू भी परमात्मा नहीं होता वह तो परमात्मा का माध्यम होता है।" * बाबा स्वामी * *हिमालय का समर्पण योग६/३८९*

चैतन्य का अनुभव

चैतन्य का पहला प्रभाव ये चुंबकिय तरंगें ही होती है जो हमारी आत्मा को अपनी ओर खींचती है | और शरीर चाहे, न चाहे, आत्मा शरीर को जाने- अनजाने में उस ओर ले ही जाती है | और आत्मा यह इसलिए भी करती है क्योंकि शरीर की अपेक्षा आत्मा चैतन्य का अनुभव जल्दी करती है | क्योंकि चैतन्य परमात्मा की शक्ति है और इस, परमात्मा की शक्ति को आत्मा पहचानती है | इसीलिए आत्मा परमात्मा की शक्ति कीओर आकर्षित होती है | और दूसरा, आत्मा का शरीर पर नियंत्रण हो जाता है | मनुष्य आत्मसम्मोहीत हो जाता है और आत्म-नियंत्रित हो जाता है | और फिर आत्मनियंत्रित हो जाने के कारण वह वही कार्य करता है जो उसकी आत्मा चाहती है और इसलिए आत्मा शरीर को चैतन्य के पास बार-बार ले जाती है | बाबा स्वामी

સમર્પણ ધ્યાન

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आत्मसुख

'आत्मसुख' यानी शरीर की संपूर्ण सकारात्मक भाव की अवस्था है , उसमें आपने जीवन में क्या पाया है , वही अनुभव कराती है। कई बार हम दूसरों के लिए दुःखी होते हैं , लेकिन वे दुःख दूसरों के होते हैं , उन्हें ही वे दूर करना होंगे। आप तो केवल एक मार्गदर्शक का कार्य कर सकते हो।बस इतना ही आपके हाथों में है। क्योंकि प्रत्येक आत्मा आखिर आपने  पूर्वजन्म के कर्म 'नष्ट' करने को ही जन्म लेती है। बस , इस जन्म में नए कर्म खड़े न हो , यह मार्ग आप उसे बता सकते हैं। वह बताना भी वह आत्मा यह मार्ग मानेगी, यह अपेक्षा के साथ नहीं , क्योंकि सद्गुरु रूपी परमात्मा के दर्शन , उससे अनुभूति पाना और अनुभूति से मोक्ष की स्थिति पाना और अंत में पूर्ण 'आत्मसुख' का अनुभव करना यह सब एक जन्म में अपेक्षा करना व्यर्थ हैं। जन्मों-जन्मों की यह प्रक्रिया होती है।     बाबा स्वामी *आत्मेश्वर (आत्मा ही ईश्वर है) पृष्ठ:६८*

मधुचैतन्य

परमात्मा यानी विश्व के अणु-अणु मे फैली हुई  चेतना। सदैव परमात्मा के  स्वरूप  से  एकरूपता रखो। ऐसा करने मे  सफल  हुए  तो आजके परमात्मा को  पहचान  पाओगे । भक्तिमाग॔ की  पराकाष्ठा है -देवता के  शरीर पर चित्त न रखते  हुए  देवता के उस पार  के स्वरुप पर  चित्त  रखा  जाय। सारे  धर्मो का   एक ही निचोड है - मनुष्य धम॔ की  प्राप्ति; और परमात्मा का  माध्यम कोई विशेष धम॔ का  नही  होता , सबका  होता है । कोई भी धार्मिक कट्टरता विशुद्धी चक्र को खराब करती है । गुरु वो  अधिकृत माध्यम है जिस माध्यम के  द्वारा हम विश्व चेतना के  साथ जुड़ते है । जितना रोल स्काफ॔ बांधते वक्त आयने का  है, उतना ही रोल गुरू  का  है। जिनके पास  जाके  हमारी इनवड॔ जर्नी  (अंतर्मुखी यात्रा शुरू होती है । समर्पण यानी गुरू के माध्यम से अपने आप को समर्पित होना । निर्विचार स्थिति पाने के लिए गुरू की आवश्यकता नही है । प्रभु ध्यान  मे गुरू से  सिर्फ ज्ञान  नही, पर  संस्कार भी संक्रमित होते है,  जो निर्विचार स्थिति के अनेकवीध उपायों से भी  संभव  नही है । आत्म साक्षात्कार के  बाद पहले अपने  दोष  दिखते है और दूसरों के  दोष दिख

बाहरी धर्म से भीतरी धर्म तक

आत्मा के द्वारा चुने हुए बाहरी धर्म को ही अगर हम अपना लें , तो उस बाहरी धर्म से भीतरी धर्म तक पहुँचा जा सकता है | यानि सब धर्म समान  है | सभी धर्मों में मनुष्य धर्म की बात की गई है और सभी धर्मों का उद्देश्य मनुष्य धर्म को जगाना है | और धर्म का चुनाव आत्मा ने किया है ,इसलिए जिस घर में जन्म लिया ,उस घर के धर्म को मनुष्य को अपनाना चाहिए क्योंकि वही उसकी आध्यात्मिक प्रगति के लिए उपयुक्त है | आध्यात्मिकता एक स्तिथि है जिस स्तिथि में परमात्मा की प्राप्ति होती है और यह आध्यात्मिक स्तिथि किसी भी धर्म के द्वारा प्राप्त की जा सकती है | या हम यह भी कह सकते हैं की आध्यात्मिक स्तिथि वह ठिकाना है जिसे किसी भी धर्म के मार्ग से पाया जा सकता है | इसलिए मनुष्य को अपने धर्म का ही पालन कर आध्यात्मिक स्तिथि को प्राप्त करना है | अपने धर्म को छोड़कर दूसरा धर्म ग्रहण करने की कोई आवश्यकता नहीं है | आध्यात्मिक स्तिथि तक सब धर्मों से पहुंचा जा सकता है ,लेकिन उस आध्यात्मिक स्तिथि को प्राप्त करने के लिए प्रथम अपने धर्म को पकड़ना होगा ,अपने धर्म का पालन करना होगा और बाद में धर्म से परे पहुँचना होगा | धर्म भी मा

अच्छे फलों को अपेक्षा

सभी पुण्यात्माओं को मेरा नमस्कार ..         मनुष्य का स्वभाव है , वह अच्छे "फलों" को अपेक्षा करता है । लेकिन अच्छे फल आकाश से नही टपकते है । अच्छे फलों के लिए अच्छे "वृक्ष" होना आवश्यक होता है और अच्छे वृक्ष के लिए अच्छे "बीज "का होना आवश्यक है । अच्छा "बीज"केवल अच्छे वातावरण से ही बनता है । . . . श्री गुरुशक्ति आवाहन संदर्भ :--[आत्मेस्वर ४७]

श्री गुरुशक्तीधाम

     यह  स्थान  जो  परमात्मा  को  बाहर  खोज  रहे  है , उन्हे  भीतर  की  यात्रा  कराऐगा  और  जो  भीतर  तक  पहुँच  चुके  है  और  वहीँ  अटक  गए  है , उन्हे  बाहर  का  मार्ग  बताऐगा  और  अनुभव  कराऐगा - परमात्मा  सर्वत्र  विद्यमान  है । यह  स्थान  नए  साधकोँ  के  लिए  प्रायमरी  स्कूल  है  और  पुराने  साधकोँ  के  लिए  PHD  [ पी .एच .डी .] का  ज्ञान  कराएगा । आप  जिस  स्थान  पर  हो , उस  स्थान  से  आगे  की  ओर  अग्रसर  होंगे । प्रत्तेक  मनुष्य  की  तरफ  देखने  का  आपका  नज़रिया  बदल  जाएगा । आप  जीवन  की  तरफ  सकारात्मक  रूप  से  देखेंगे  क्योंकि  अब  आपके  जीवन  में  समाधान  स्थापित  हो  चुका  होगा ।... * श्री गुरुशक्तीधाम * [ आध्यात्मिक सत्य ]

आत्मीय भाव बढ़

आत्मभाव हम स्वयं नहीं बढ़ा सकते हैं , इसके लिए हमें पवित्र और शुद्ध आत्माओं के संगत में रहना पड़ता है। सब संगत का ही असर होता है। हिमालय में जाना कठीण है लेकिन वहाँ की कठिनाइयों पर विजय पाकर जो वहाँ पहुँच गए वे अच्छी संगत को पा गए क्योंकि वहाँ अच्छी आत्माओं की सामुहिकता है। हिमालय में पहुँचना भी एक जन्म में संभव नहीं है। क्योंकि एक जन्म में इच्छा करते हैं जाने की , दूसरे जन्म में स्थिती बनाते हैं कि जा सके और तीसरे जन्म में जाने का प्रयास करते हैं और रास्ता में शरीर साथ छोड़ देता है लेकिन मूत्यु के बाद भी उनकी दिशा ऊध्र्वगामी होती है। इसलिए अगले जन्म में वे अवश्य वहाँ तक पहुँचने में सफल हो जाते है। और फिर वहाँ जाकर जो पवित्र आत्माओं की संगत मिलती है तो उनकी सामुहिकता में आत्मीय भाव बढ़ जाता है और आध्यात्मिक स्थिती बन जाती है। वहाँ तक पहुँचने में सारे प्रयत्न हैं। एक बार पहुँच गए कि कोई भी वापस नहीं आता है। मेरी पत्नी मेरी आध्यात्मिक यात्रा का आधार थी। वह मेरे जीवन में आने के बाद ही कोई निर्णय मैं ले पाया था। भाग - ६ - १३३/ १३४

पद का प्रभाव

* सामान्य प्रभाव * इस साधक पर पद का प्रभाव नहीं होता है। वे पहिले जैसे थे , वे वैसे ही रहते हैं। यानि पद से इनकी साधना पर कोई प्रभाव नहीं होता है। इनकी आध्यात्मिक स्थिति पर पद का कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं होता है। वे जैसे थे , वैसे ही बने रहते हैं। साधारणतः ये अधिक सक्रिय भी नहीं होते हैं। लेकिन ये साधक पद प्राप्त होने का कोई लाभ भी नहीं ले पाते हैं। *पद वास्तव में अपनी आध्यात्मिक स्थिति को वृध्दीगत करने का अच्छा अवसर होता है।* इस अच्छे अवसर का सदुपयोग वे नहीं कर पाते हैं। लेकिन वे अपनी आध्यात्मिक स्थिति को खोते भी नहीं हैं। इन्हें पद से भी कोई लगाव नहीं रहता हैं। पद हो या न हो, वे कार्यरत रहते ही हैं। * नकारात्मक प्रभाव: * सामान्यतः यही प्रभाव पदाधिकारियों में प्रायः पाया जाता है। इनके मन में कार्य करने की खूब इच्छा होती है, वे कार्य में लग जाते हैं। कार्य की प्रधानता होती है और अधिक कार्यरत होने से , राईट साइड में जाते हैं , सूर्य नाडी क्रियान्वित हो जाती हैं। और कार्य में व्यस्त होने के कारण कब गुरूकार्य का कार्य गुरू होता है, इसका पता भी नही चलता है। और इनका पद ही इनकी आ

मन का समर्पण

    समर्पण  है  मन  का  समर्पण । मन  के  समर्पण  से मेरा आशय है  मन  से  सदैव  गुरुदेव  का स्मरण  करो  और  गुरुदेव  मेरे  साथ  है , मेरा  कभी  कुछ  बुरा  हो  नही  सकता है , यह  भाव रखो  और  कोई  भी  नकारात्मक  विचार  मत  करो । दूसरा  मन  में भूतकाल  के  और  भविष्यकाल  के  विचार  मत  करो । किसी  का  भी  बुरा  मत  सोचो । सभी  का  कल्याण  हो  यह  भाव  ही  मन  मेँ  रखो ।  आत्मेश्वर पूज्य स्वामीजी - ८३ 

स्टोन

जो जगह वह स्टोन नहीं है , वह जगह लेते ही क्यों हो ? वह बोला , स्टोन है या नहीं , वह तो खोदने के बाद ही पता चलता है। मैंने कहा , नहीं। ध्यान करेगा तो कहाँ स्टोन कहाँ है पता चल जाएगा। ऐसा हो सकता है ? मैंने कहा , हाँ , हो सकता है। तो वह बोला , में कल कार लेकर आपको लेने आता हूँ। आप मुझे ऐसी एक जगह बता दें जहाँ स्टोन है तो मैं उसे खरीद लूँगा। मैंने कहा , ठीक। दूसरे सबेरे वह व्यापारी आया और हम तीन स्थानों पर गए। उसमे एक जगह पर मुझे चित्त से लगा कि यहाँ स्टोन है। भाग -६ - १३१

अभिमंत्रित्र जल का प्रयोग

" हम जब इस देहरुपी बीज को पार करते है, तभी आत्मा रूपी पौधा प्रगट होता है और जो शरीर के पार ही नहीं पहुँच पाते हैं, वे आत्मा की अनुभूति नहीं ले सकते हैं। तो प्रथम यह  है कि कुछ भी अनुभूति न होना आपके शरीर की जडता की निशानी है। यानी यह कोई अच्छी या गर्व की बात नहीं है कि मुझे कुछ भी नहीं हुआ। यानी कुछ भी महसूस नहीं हुआ, यह सबसे खराब आध्यात्मिक स्थिति है। उसके ऊपर की स्थिति है कि पानी का स्वाद किसी को अलग लगा या मीठा लगा तो आप संवेदनशील तो हैं लेकिन केवल शरीर के स्तर के ऊपर ही हैं और आप साधना में अपने शरीर को महत्त्व अधिक देते हैं। अगर हम शरीर को ही महत्व देंगे तो शरीर ही अनुभूति को प्राप्त कर पाएगा। समर्पण ध्यान का उद्देश्य है, शरीर का भाव कम करके आत्मा का भाव बढाना क्योंकि मनुष्य जीवन की जितनी भी समस्याएँ हैं, मनुष्य जीवन की जीतनी भी सामाजिक विषमताएँ हैं, आर्थिक विषमताएँ हैं, सभी इस शरीर के कारण ही हैं। ....... ......यह अनुभूति केवल शरीर को लक्ष्य रखकर नहीं कराई गई थी।" हि.स.योग.6-पेज. 294.

गुरुमाँ

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आज आपको जो "गुरुसानिध्य" मिल रहा है ,वह केवल "गुरुमाँ "के कारण । अन्यथा जिसका शरीरभाव संपूर्ण: छूट गया हो वह शरीर में भी कैसे रह सकता है ! आपके लिए भले ही वह "गुरुमाँ"हो ,मेरे लिए तो वो केवल और केवल "माँ "है । आज जहाँ तक भी मैं पहूँचा हूँ , इस सबके पीछे की उर्जाशक्ती वह ही है । तुम्हे ध्यान में कैसे जाए ,यह समस्या है तो मैं ध्यान में से कैसे बाहर आऊँ ,यह समस्या है ।आज जो विश्वस्तर पर जो वटवृक्ष दिख रहा है ,उसका "बीज" श्री शीवबाबा का होगा पर "माली " तो गुरुमाँ ही है जिसने पौधे को वटवृक्ष बनाया है । . . . परमपूज्य स्वामीजी [ आत्मेश्वर ५१/५२]

हवन चिकित्सा

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१) एक वेबसाइट रिपोर्ट के अनुसार फ्रांस के ट्रेले नामक वैज्ञानिक ने हवन पर रिसर्च की। जिसमें उन्हें पता चला कि हवन मुख्यतः आम की लकड़ी पर किया जाता है। जब आम की लकड़ी जलती है तो फोर्मिक एल्डिहाइड नामक गॅस उत्पन्न होती है जो की खतरनाक बैक्टेरिया और जिवाणुओ को मारती है तथा वातावरण को शुद्ध करती है। इस रिसर्च के बाद ही वैज्ञानिकों को इस गॅस और इसे बनाने का तरीका पता चला। गुड की जलने पर भी ये गैस उत्पन्न होती है। २) टौटिक नामक वैज्ञानिक ने हवन पर की गई अपनी रिसर्च में ये पाया की यदि आधे घण्टे हवन में बैठा जाए अथवा हवन के धुएँ से शरीर का संपर्क हो तो टाइफाइड जैसे खतरनाक रोग फैलाने वाले जीवाणु भी मर जाते है और शरीर शुद्ध होता है। ३) हवन की महत्ता देखते हुए राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान लखनऊ के वैज्ञानिकों ने भी इसपर एक रिसर्च करी की क्या वाकई हवन से वातावरण शुध्द होता है और जीवाणु नाश होता है अथवा नही। उन्होंने ग्रंथ में वर्णित हवन सामुग्री जुटाइ और जलने पर पाया की ये विषाणु नाश करती है। फिर उन्होंने विभिन्न प्रकार के धुएँ पर भी काम किया और देखा कि सिर्फ आम की लकड़ी १किलो