अभिमंत्रित्र जल का प्रयोग

" हम जब इस देहरुपी बीज को पार करते है, तभी आत्मा रूपी पौधा प्रगट होता है और जो शरीर के पार ही नहीं पहुँच पाते हैं, वे आत्मा की अनुभूति नहीं ले सकते हैं।
तो प्रथम यह  है कि कुछ भी अनुभूति न होना आपके शरीर की जडता की निशानी है। यानी यह कोई अच्छी या गर्व की बात नहीं है कि मुझे कुछ भी नहीं हुआ। यानी कुछ भी महसूस नहीं हुआ, यह सबसे खराब आध्यात्मिक स्थिति है।
उसके ऊपर की स्थिति है कि पानी का स्वाद किसी को अलग लगा या मीठा लगा तो आप संवेदनशील तो हैं लेकिन केवल शरीर के स्तर के ऊपर ही हैं और आप साधना में अपने शरीर को महत्त्व अधिक देते हैं। अगर हम शरीर को ही महत्व देंगे तो शरीर ही अनुभूति को प्राप्त कर पाएगा। समर्पण ध्यान का उद्देश्य है, शरीर का भाव कम करके आत्मा का भाव बढाना क्योंकि मनुष्य जीवन की जितनी भी समस्याएँ हैं, मनुष्य जीवन की जीतनी भी सामाजिक विषमताएँ हैं, आर्थिक विषमताएँ हैं, सभी इस शरीर के कारण ही हैं। .......
......यह अनुभूति केवल शरीर को लक्ष्य रखकर नहीं कराई गई थी।"

हि.स.योग.6-पेज. 294.

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