अहंकार
"अहंकार आ जाने से जहाँ हम एक ओर दूसरों को दुखी करते हैं, यह भी एक प्रकार की हिंसा ही है, वहीं दूसरी ओर अपने-आपको भी असंतुलित कर लेते हैं। मेरे जैन गुरु अहंकार को दर्शक बनकर देखते थे और जानते थे, उसका स्वयं ही निरीक्षण करते थे, यह सब अपने-आपको शरीर से अलग करके ही हो पाता था। अहंकार पर नियंत्रण सतत् साधना से ही संभव हो पाता था, जितना कार्य करके चित्त को बाहर किया है, उतना ही साधना करके चित्त को भीतर करना होता था।
हम एक समय दो दिशाओं में देख ही नहीं सकते हैं। जैसे हम अगर सामने देख रहे हैं तो हमारे पीठ के पीछे क्या हो रहा है, वह हमें पता नहीं चल सकता है क्योंकि हम पीछे नहीं देख रहे हैं। यह ठीक वैसा ही है, जब हम अंतर्मुखी होते हैं तो हमें केवल और केवल हमारे भीतर के ही दोष दिखते हैं, बाहर दूसरे के दोष नहीं दिखते हैं। साधना में चित्त को अंतर्मुखी करके अपने दोष देखना और उन्हीं पर चित्त रखना होता है और जब हम अपने ही दोषों पर चित्त रखते हैं, तो धीरे-धीरे वे दोष दूर होना प्रारंभ हो जाते हैं।
अंतर्मुखी होने से दो लाभ हैं- एक ओर हमें हमारे दोष दिखते हैं और वे दूर होते हैं। दूसरा हमारा चित्त भीतर रहने से प्रभावशाली बनता हैं। अब हमें कब अंतर्मुखी होना है, कब नहीं यह तो पता चलना कठिन है। इसलिए, नियमित ध्यान साधना करने की आवश्यकता होती है, यह सतत नियमित ध्यान साधना करने पर ही जाना जा सकता है।
अहंकार का प्रभाव प्रथम तो शरीर पर पडता है। शरीर का तापमान बढ जाता है, यह बढी हुई गर्मी प्रथम शरीर को बाद में मन को, विचारों को भी प्रभावित करती है। इसे जितने जल्दी दूर किया जाए उतना अच्छा होता है।"
हि.स.योग.6-पेज.321.
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