आत्मधर्म

मैंने कहा , अब मुझे मेरे जैन मुनि याद आ रहे हैं। मैं जैन धर्म का नहीं था। तो भी दो बार उन्होंने मुझे अपनी कुटिया में , गुफाओं में रखा था। इनके सभी के बाहरी चीले कुछ भी हों , यह एकबार उस स्थान तक पहुँच जाते हैं। और जहाँ परमात्मा की शक्ति की अनुभूति हो जाती है तो सारे धर्म के आवरण छूट जाते हैं। और फिर धर्म का भेद नहीं रहता क्योंकि यह बाहरी धर्म का संबंध तो शरीर के साथ है। आत्मा तो प्रत्येक जन्म में बाहरी धर्म बदलते रहती है। आत्मा का भीतर का धर्म तो एक ही है - आत्मधर्म ।

भाग ६ - १३०

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