परमात्मा

१. इस विश्व में परमात्मा सर्वत्र है।
२.वही सूर्य को,  चंद्र को,  पृथ्वी को,  तारों को निश्चित स्थान पर रख रहा है।
३.वही भूमि पर संतुलन रख रहा है। 'पानी की मात्रा' बढने नहीं दे रहा है।
४. मनुष्य ' अतिविचार' करके वैचारिक प्रदूषण कर रहा है जिससे गर्मी बढ रही है और उसी से  ' ग्लोबल र्वोर्मिग' का खतरा उत्पन हो रहा है।
५. अधिक गर्मी बढने पर बर्फ पिघल जाएगी और सर्वत्र पानी हो जाएगा। पृथ्वी की जमीन डूब जाएगी।
६.  प्रकृति का संतुलन बिगड जाएगा। अति विचारों से वह बिगड रहा है।
७.  विचार करना प्रकृति के विरोध में है क्योंकि प्रकृति के साथ जुड जाने पर विचार नहीं रह जाते।
८.  'समर्पण ध्यान'  प्रकृति से समरस होना सिखाता है।
९.  'समर्पण ध्यान'  करने से हमारा अस्तित्व प्रकृति से अलग नहीं रह जाता है।
१०.  परमात्मा एक। अविनाशी शक्ति है जो विश्व में सर्वत्र विद्यमान है।
११. 'परमात्मा' ही सारे बंह्मड का संचालन व नियंत्रण कर रहा  है।
१२. परमात्मा को किसी 'धर्म' के दायरे में बाँधा ही नहीं जा सकता है।
१३. परमात्मा कल भी था, ' आज भी है'  और कल भी रहेगा।
१४. परमात्मा 'सजीव'  व' 'निर्जीव' दोनों  मै समान रुप से विध्यमान रहता है।
१५. कई  'निर्जीव स्थान' भी परमात्मा की अनुभूति कराते है।
१६. हम सजीव है, इसलिए  'सजीव' से हम आसानी से ग्रहण कर सकते है।
१७.  एक बार आपके भीतर का परमात्मा जागृत हो जाए,  आपको बाहर के भी परमात्मा के दर्शन सर्वत्र होने लग जाते हैं।
१८. परमात्मा सर्वत्र है। इस ब्रह्मांड में परमात्मा के अलावा और कुछ है ही नहीं।
१९. परमात्मा की न कोई शुरुआत है, न अंत है।
२०. ' समर्पण ध्यान'  परमात्मामय होना सिखाता है।
४१.  परमात्मा एक 'मुकाम'  है और 'धर्म' उस तक पहुँचने की सीढियाँ हैं।
४२.  परमात्मा वह स्थान है जहाँ पहुँचकर सारी खोज समाप्त हो जाती है, खोजना बंद हो जाता है।
४३.  'परमात्मा' जीवन की अंतिम खोज है जिसके बाद 'सब कुछ प्राप्त हो गया' यह भाव आ जाता है।
४४.  सर्वत्र परमात्मा एक है।  वह सब में है।  वह कभी अलग-अलग नहीं हो सकता है।
४५. परमात्मा की मान्यताएँ अलग-आलग हो सकती हैं। परमात्मा के माध्यम अलग-अलग हो सकते  हैं,  पर परमात्मा कभी अलग-अलग नहीं हो सकता है।
४६.  परमात्मा निराकार है। और जो दिख रहा है,  वह परमात्मा का माध्यम है, पर परमात्मा नहीं क्योंकि परमात्मा तो कभी दिख ही नहीं सकता। उसे देखा नहीं जा सकता है।
४७.  परमात्मा को केवल अनुभव किया जा सकता है। परमात्मा के पास पहुँचने का रास्ता ह्रदय से है, बुद्धि से नहीं।
४८.  परमात्मा कोई शरीर नहीं हो सकता है क्योंकि शरीर नाशवान है और परमात्मा तो अविनाशी है।
४९.  कोई शरीर परमात्मामय हो सकता है, लेकिन परमात्मा नहीं हो सकता है।
५०.  जो शरीर परमात्मामय हो जाते हैं याने जो शरीर अपना अस्तित्व खो देते हैं ,  जो एक से अनेक हो जाते है, ऐसे शरीर परमात्मा के माधयम बन जाते हैं।
आध्यात्मिक सत्य. पृष्ठ. १३-१४.
६१.  परमात्मा एक अद्रश्य शक्ति है। इसे किसी ने आज तक देखा हुआ नहीं है क्योंकि इसे देख ही नहीं सकते हैं ।  यह शक्ति सर्वत्र है। इसे अलग करके देखा नहीं जा सकता है।
६२.  जिसने देखा है, वह उसी का बनाया गया रूप है क्योंकि उस रूप को परमात्मा उसने मान रखा था।
६३.  इसीलिए जो माध्यम परमात्मामय हो गए और हमें भी वे परमात्मा से प्रतीत हुए, लेकिन उन माध्यमों ने भी कभी नहीं कहा कि मैं परमात्मा हूँ।
६४.  क्योंकि वे सत्य जानते थे कि परमात्मा एक सर्वत्र-शक्ति है,  एक व्यक्ति कभी परमात्मा नहीं हो सकता है।
६५.  परमात्मा के स्वरूप को समझे बिना परमात्मा की अनुभूति संभव नहीं है।
६६.  परमात्मा सर्वत्र है, इसलिए उसे अलग करके कभी देखा नहीं जा सकता है।
६७.  परमात्मा की प्राप्ति के बाद 'मैं'  'वो'  में बदल जाता है। फिर कहते हैं,  "वो चाहे वह वह करेगा।"
६८.  सारी जीवनयात्रा ही 'मैं' से 'वो' तक की है। एक बार 'वो' का जीवन में प्रवेश हो जाए, जीवन आनंदमय हो जाता हैं।
६९.  मनुष्य सुख और दुःख से परे हो जाता है। सुख मिले उसकी कृपा से, दुःख मिले तो भी उसकी कृपा से। जीवन में 'मैं' विदा हो जाता है और एक साक्षीभाव आ जाता है।
७०.  जब मनुष्य के प्रयत्न असफल हो जाते हैं और *'मैं'* का अहंकार टूट जाता है,  तब उसे उस परमपिता परमेश्वर की याद आती है।
७१.  और फिर मनुष्य उस परमेश्वर के किसी ना किसी माध्यम के सामने नतमस्तक होता है।
७२.  याने 'छप्पर लगे फटने और प्रसाद लगे बँटने' वाली स्थिति हो जाती है। याने परमेश्वर को केवल संकट के समय ही याद किया जाता है।
७३.  संकट के कारण ही क्यों न हो, मनुष्य थोड़े से समय के लिए 'मैं' से  'वो' तक पहुंच जाता है।
७४.  परमात्मा के सत्यस्वरूप को जाना हो, तो उस तक पहुँचने में आसानी होगी।
७५.  परमात्मा आस्तिक व नास्तिक दोनों के लिए समान होता है क्योंकि वह करूणा का सागर है। वह किसी के लिए कम या ज्यादा नहीं हो सकता है।
७६.  वह प्रत्येक मनुष्यमात्र में बसता है, प्रत्येक प्राणी में बसता है।
७७.  हमारे भीतर का परमात्मा  हमारे सबसे करीब होता है। उस तक पहुँचना सबसे सरल होता है।
78.  हम पास के परमात्मा को छोडकर  बाहर के परमात्मा की खोज में समय बर्बाद करते है।
७९.  कोई भीतर पहुंचा हुआ माध्यम ही हमें भीतर के परमात्मा तक ले जा सकता है।
८०.  परमात्मा को लोग व्यापारी समझते हैं। "तूने मेरा यह काम किया तो 'मैं' तुझे यह प्रसाद चढाऊँगा"  अरे, सबकुछ उसी का है, तू  उसे क्या चढाएगा?
८१.  शरीर एक वाहन है जिससे परमात्मा तक मनुष्य को पहुँचना है। परमात्मा मंजिल है।
८२.  जो शरीर को ही सर्वस्व मान लेते हैं, वे परमात्मा को बीमारियाँ ठीक करने की प्रार्थना करते हैँ।
83.  जो भौतिक जगत को ही सर्वस्व मानते हैं, वे भौतिक जगत की वस्तुएँ परमात्मा से माँगते रहते हैं।
८४.  भौतिक वस्तुएँ माँगकर हम अपने आपको भौतिकता में लिप्त कर रहे हैं। यह माँग कभी समाप्त ही नहीं होगी।
८५.  परमात्मा  को सदैव उसका सानिध्य माँगना चाहिए, सदैव उसकी कृपा माँगनी चाहिए, सदैव करूणा माँगना चाहिए।
८६.  परमात्मा सदैव समय के अनुसार बदलते रहता है। आज का परमात्मा का माध्यम आज के अनुसार होगा।
८७.  अगर आप वर्तमान में रहते हो तो ही आपको वर्तमान समय का परमात्मा का माध्यम मिलेगा और उस  माध्यम को तुम जान पाओगे।
८८.  परमात्मा किसी ना किसी रुप में विश्व में प्रगट होते ही रहता है। बस हमें उसे पहचानते आना चाहिए।
८९.  वर्तमान समय का परमात्मा का माध्यम ही वह माध्यम है जो हमारे भीतर के परमात्मा को जागृत कर देगा। और फिर हम पाएँगे-परमात्मा तो मेरे भीतर ही हैं।
९०.  जब  हमारे भीतर का परमात्मा जागृत होगा तो उसके प्रकाश में विश्व का सारा ग्यान आ जाएगा।

आध्यात्मिक सत्य. पृष्ठ. १०

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