पद का प्रभाव

सभी पुण्यात्माओं को  मेरा नमस्कार........

         जब किसी साधक को गुरूकृपा में समर्पण परिवार में कोई 'पद' मिलता है , कोई पोस्ट मिलती है , तो उस साधक की 'साधना' पर ,आध्यात्मिक स्थिति पर प्रभाव पड़ता है। यह प्रभाव तीन प्रकार से पड़ता है।

१) _सकारात्मक प्रभाव_ :
वह इस पद को गुरूकार्य का 'सुअवसर' समझता है, गुरूकृपा समझता है और पद को गुरूप्रसाद समझकर ग्रहण करता है। और गुरू के श्रीचरणों में चित्त रखकर सदैव कार्यरत रहता है और ऐसे साधक की 'साधना' पद प्राप्त होने के बाद अधिक होने लगती है और गुरूकार्य के कारण गुरू पर चित्त रखने का फायदा उसे होता है। और ऐसे साधक की आध्यात्मिक स्थिति और अच्छी हो जाती है। ऐसे साधक उच्च कोटि के पदाधिकारी आदर्श होते है , पर बहुत विरले ही होते हैं। इनका चित्त गुरूकार्य में होता है। ये गुरूकार्य को 'कार्यगुरू' नहीं होने देते हैं। इनके व्यवहार में गुरू को प्रधानता रहती है। कार्य तो एक माध्यम है , सेवा का यह भाव सदैव होता है।

२) _*सामान्य प्रभाव :*_
इस साधक पर पद का प्रभाव नहीं होता है। वे पहिले जैसे थे , वे वैसे ही रहते हैं। यानि पद से इनकी साधना पर कोई प्रभाव नहीं होता है। इनकी आध्यात्मिक स्थिति पर पद का कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं होता है। वे जैसे थे , वैसे ही बने रहते हैं। साधारणतः ये अधिक सक्रिय भी नहीं होते हैं।
लेकिन ये साधक पद प्राप्त होने का कोई लाभ भी नहीं ले पाते हैं। *पद वास्तव में अपनी आध्यात्मिक स्थिति को वृध्दीगत करने का अच्छा अवसर होता है।* इस अच्छे अवसर का सदुपयोग वे नहीं कर पाते हैं। लेकिन वे अपनी आध्यात्मिक स्थिति को खोते भी नहीं हैं। इन्हें पद से भी कोई लगाव नहीं रहता हैं। पद हो या न हो, वे कार्यरत रहते ही हैं।

3) _*नकारात्मक प्रभाव:*_
सामान्यतः यही प्रभाव पदाधिकारियों में प्रायः पाया जाता है। इनके मन में कार्य करने की खूब इच्छा होती है, वे कार्य में लग जाते हैं। कार्य की प्रधानता होती है और अधिक कार्यरत होने से , राईट साइड में जाते हैं , सूर्य नाडी क्रियान्वित हो जाती हैं। और कार्य में व्यस्त होने के कारण कब गुरूकार्य का कार्य गुरू होता है, इसका पता भी नही चलता है। और इनका पद ही इनकी आध्यात्मिक स्थिति में बाधक बन जाता है। और यह भाव इतना सूक्ष्म है कि उसे तो वह पता भी न चलेगा , एक जिवंत गुरू होने पर ही वह इस प्रकार के शिष्य को संभाल सकता है। वे पद के प्रभाव में आ जाते है , जो नाशवान है और चित्त का नाश होता है। और फिर उसका संतुलन बिगड़ जाता है क्योंकि चित्त गुरूचरण से हटकर कार्य पर आ जाता है।

४)  _*व्यवहार एवं भाव:*_
प्रत्येक पदाधिकारी का संतुलन तभी बना रह सकता है , जब उसका चित्त व्यवहार से नहीं भाव से भरा हो। पद मिलने के साथ व्यवहार आया और जब साधक अपने सद्गुरू से व्यवहार की चर्चा करेगा , तो सद्गुरु एक निचले स्तर पर ही बात करेगा। सद्गुरू के सान्निध्य का लाभ उसे प्राप्त होकर भी प्राप्त न होगा। लेकिन साधक का चित्त व्यवहार पर नहीं , भाव पर है , तो व्यवहार की चित्त में प्रधानता नहीं होगी।
सारा मामला भाव का है। व्यवहार में भी भाव तभी रखा जा सकता है , जब भाव प्रधानता में हो।

---- *पूज्य स्वामीजी के आशीर्वचन*
*मधुचैतन्य अक्टूबर २००९*

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