पद का प्रभाव

* सामान्य प्रभाव *

इस साधक पर पद का प्रभाव नहीं होता है। वे पहिले जैसे थे , वे वैसे ही रहते हैं। यानि पद से इनकी साधना पर कोई प्रभाव नहीं होता है। इनकी आध्यात्मिक स्थिति पर पद का कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं होता है। वे जैसे थे , वैसे ही बने रहते हैं। साधारणतः ये अधिक सक्रिय भी नहीं होते हैं।
लेकिन ये साधक पद प्राप्त होने का कोई लाभ भी नहीं ले पाते हैं। *पद वास्तव में अपनी आध्यात्मिक स्थिति को वृध्दीगत करने का अच्छा अवसर होता है।* इस अच्छे अवसर का सदुपयोग वे नहीं कर पाते हैं। लेकिन वे अपनी आध्यात्मिक स्थिति को खोते भी नहीं हैं। इन्हें पद से भी कोई लगाव नहीं रहता हैं। पद हो या न हो, वे कार्यरत रहते ही हैं।

* नकारात्मक प्रभाव: *

सामान्यतः यही प्रभाव पदाधिकारियों में प्रायः पाया जाता है। इनके मन में कार्य करने की खूब इच्छा होती है, वे कार्य में लग जाते हैं। कार्य की प्रधानता होती है और अधिक कार्यरत होने से , राईट साइड में जाते हैं , सूर्य नाडी क्रियान्वित हो जाती हैं। और कार्य में व्यस्त होने के कारण कब गुरूकार्य का कार्य गुरू होता है, इसका पता भी नही चलता है। और इनका पद ही इनकी आध्यात्मिक स्थिति में बाधक बन जाता है। और यह भाव इतना सूक्ष्म है कि उसे तो वह पता भी न चलेगा , एक जिवंत गुरू होने पर ही वह इस प्रकार के शिष्य को संभाल सकता है। वे पद के प्रभाव में आ जाते है , जो नाशवान है और चित्त का नाश होता है। और फिर उसका संतुलन बिगड़ जाता है क्योंकि चित्त गुरूचरण से हटकर कार्य पर आ जाता है। 

--- *पूज्य स्वामीजी के आशीर्वचन*

*मधुचैतन्य अक्टूबर २००९*

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